________________
१७८
जैन-दर्शन वस्था है। यही अन्तिम साध्य है। यही दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति है । यही सुख का अन्तिम रूप है। यही ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की पराकाष्ठा है। पुद्गल : ____ यथार्थवाद का विवेचन करते समय यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा चुका है कि जड़ तत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता है। भौतिक तत्त्व प्राध्यात्मिक तत्त्व से स्वतन्त्र हैं। जिसे सामान्यतया जड़ या भौतिक कहा जाता है वही जैन दर्शन में पुद्गल शब्द से व्यवहृत होता है। वौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द का आत्मा के अर्थ में प्रयोग हुआ है। पुद्गल शब्द में दो पद हैं-'पुद्' और 'गल' । 'पुद्' का अर्थ होता है पूरण अर्थात् वृद्धि और 'गल' का अर्थ होता है गलन अर्थात् ह्रास । जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है वह पुद्गल है । पूरण
और गलनरूप क्रिया केवल पुद्गल में ही होती है, अन्य में नहीं। पुद्गल का एक रूप दूसरे रूप में पूरण और गलन द्वारा ही परिवर्तित होता है।
पुद्गल के मुख्य चार धर्म होते हैं-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण । पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में ये चारों धर्म होते हैं । इनके जैन दर्शन में बीस भेद किए जाते हैं।
स्पर्श के आठ भेद होते हैं-मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ।
रस के पाँच भेद होते हैं-तिक्त, कटुक, ग्राम्ल, मधुर और कषाय । गन्ध दो प्रकार की है--सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । वर्ण के पाँच प्रकार हैं-नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित।
ये बीस मुख्य भेद हैं। इनका संख्यात असंख्यात और अनन्त भेदों में विभाजन हो सकता है । एक पुद्गल परमाणु में कम-से-कम कितने १-पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः ।
-तत्त्वार्थराजवार्तिक ५। १ । २४ २.-वही ५ । २३, ७-१० ३- सर्वार्थसिद्धि ५ । २३