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जैन-दर्शन में तत्त्व
१७७ हम गरीररूप कार्य से कर्मरूप कारण का अनुमान करते हैं। शरीर भौतिक है--पौद्गलिक है, ऐसी दशा में कर्म भी. पौद्गलिक ही होने चाहिए, क्योंकि पौद्गलिक कार्य का कारण भी पौद्गलिक ही हो सकता है । जैन दर्शन तर्क की इस मांग का समर्थन करता है तथा कर्म को पौद्गलिक सिद्ध करने के लिए निम्न हेतु उपस्थित करता है--
१--कर्म पौद्गलिक हैं, क्योंकि उनसे सुखःदुखादि का अनुभव होता है । जिसके सम्बन्ध से सुखदुःखादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे भोजनादि । जो पौद्गलिक नहीं होता उसके सम्बन्ध से सुखदुःखादि भी नहीं होते, जैसे आकाश ।
२--जिसके सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि का अनुभव होता है वह पौद्गलिक होता है जैसे अग्नि । कर्म के सम्बन्ध से तीव्र वेदनादि की प्रतीति होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं। : ३.-पौद्गलिक पदार्थ के संयोग से पौद्गलिक पदार्थ की ही वृद्धि हो सकती है जैसे घट तैलादि के. संयोग से वृद्धयुन्मुख होता है । यही स्थिति हमारी है । हम बाह य पदार्थों के संयोग से वृद्धि की प्राप्ति करते हैं । यह वृद्धि कार्मिक है और पौद्गलिक पदार्थों के संयोग से होती है, अतः कर्म पौद्गलिक हैं। .
४--कर्म पौद्गलिक हैं, क्योंकि उनका परिवर्तन आत्मा के परिवर्तन से भिन्न है। कर्मों का परिणामित्व (परिवर्तन) उनके कार्य शरीरादि के परिणामित्व से जाना जाता है। शरीरादि का परिणामित्व आत्मा के परिणामित्व से भिन्न है, क्योंकि आत्मा का परिणामित्व अरूपी है जब कि शरीर का परिणामित्व रूपी है। अतः कर्म पौद्गलिक हैं।
संसारी आत्मा का कर्मो से संयोग इसलिए हो सकता है कि कर्म मूर्त हैं । और संसारी आत्मा भी कर्मयुक्त होने से कथंचित् मूर्त है ।
आत्मा और कर्म का यह संयोग अनादि है, अतः यह प्रश्न ही नहीं उठता कि पहले पहल आत्मा और कर्म का संयोग कैसे हुआ ? एक बार इस संयोग के सर्वथा समाप्त हो जाने पर पुनः संयोग नहीं होता, क्योंकि उस समय प्रात्मा अपने शुद्ध अमूर्त रूप में पहुँच जाता है । यही मोक्ष है । यही संसार-निवृत्ति है । यही सिद्धावस्था है। यही ईश्वरा
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