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जैन-दर्शन आवश्यकता नहीं रहती । जहाँ एक है वहाँ कोई भेद हो ही नहीं सकता । भेद हमेशा अनेकपूर्वक होता है। भेद का अर्थ ही अनेकता है। माया या अविद्या भी इस समस्या का समाधान नहीं कर सकती, क्योंकि जहाँ केवल एक तत्त्व है वहाँ माया या अविद्या नाम की कोई चीज नहीं हो सकती। उसके लिए. कोई गुजाइश नहीं रहती । तात्पर्य यह है कि एक तत्त्ववादी भेद का संतोषजनक समाधान नहीं कर सकता । यह हमारे अनुभव की चीज है कि भेद होता है, इसलिए भेद का अपलाप भी नहीं किया जा सकता । ऐसी दशा में सुख, दुःख, जनन, मरण, बन्धन, मुक्ति आदि अनेक दशाओं के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना अत्यावश्यक है।
आत्मा के गुणों में भेद कैसे है, इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि आत्मा का सामान्य लक्षण उपयोग है। किन्तु यह उपयोग अनन्त प्रकार का होता है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा में भिन्नभिन्न उपयोग है। किसी आत्मा में उपयोग का उत्कर्ष है तो किसी में अपकर्ष है । उत्कर्ष और अपकर्ष की अन्तिम अवस्थाओं के बीच में अनेक प्रकार हैं । आत्माएँ अनन्त हैं, इसलिए आत्मा के भेद से उपयोग के भेद भी अनन्त हैं।
यहाँ पर सांख्य दर्शन के उन तीन हेतुओं का भी निर्देश कर देना चाहिए, जिनसे पुरुषबहुत्व की सिद्धि की गई है। ये तीनों हेतु प्रात्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए बहुत उपयोगी हैं । पहला हेतु है 'जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्' अर्थात् उत्पत्ति, मृत्यु और इन्द्रियादि करणों की विभिन्नता से पुरुषबहुत्व का अनुमान हो सकता है । दूसरा हेतु है 'अयुगपत्प्रवृत्तेः' अर्थात् अलग-अलग
प्रवृत्ति को देखकर पुरुषबहुत्व की कल्पना हो सकती है। तीसरा .. हेतु है 'त्रैगुण्यविपर्ययात्' अर्थात् सत्त्व, रजस् और तमस् की
१--विशेषावश्यक भाष्य १५८२ . २-वही-१५८३