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जैन-दर्शन
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और उनका भिन्न-भिन्न अस्तित्व है। जिस प्रकार एक ही आकाश घटाकाश, पटाकाश आदि रूपों में प्रतिभासित होता है उसी प्रकार अविद्या के कारण एक ही आत्मा अनेक आत्मानों के रूप में प्रतिभासित होती है । एक ही परमेश्वर कूटस्थ, नित्य, विज्ञान-धातु अविद्या के कारण अनेक प्रकार का मालूम होता है।' __इस मान्यता का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि जहाँ तक आकाश का प्रश्न है, यह कहना उचित है कि वह एक है, क्योंकि अनेक वस्तुओं को अपने अन्दर अवगाहना देते हुए भी वह एक रूप रहता है। उसके अन्दर कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। अथवा आकाश भी सर्वथा एक रूप नहीं है, क्योंकि वह भी घटाकाश, पटाकाश, मठाकाश आदि अनेक रूपों में परिणत होता रहता है । दीपक की तरह वह भी कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है । फिर भी मान लीजिए कि आकाश एकरूप है। किन्तु जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, ऐसी कोई भी एकता मालूम नहीं होती जिसके कारण सारे भेद समाप्त हो जाते हों । यह ठीक है उनका स्वरूप एक सरीखा है। ऐसा होते हुए भी उनमें ऐकान्तिक अभेद नहीं है । माया को बीच में डाल कर भेद को मिथ्या सिद्ध करना युक्ति संगत नहीं, क्योंकि माया स्वयं हो असिद्ध है। आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न है, प्रत्येक पिण्ड में अलग है। संसार के सभी जीवित प्राणी भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि उनके गुणों में भेद है जैसे-- घट । जहाँ किसी वस्तु के गुणों में अन्य वस्तु के गुणों से भेद नहीं होता वहाँ वह उससे भिन्न नहीं होती-जैसे आकाश । . दूसरी बात यह है कि यदि सारे संसार का अन्तिम तत्त्व एक ही आत्मा है तो सुख, दु:ख, बन्धन, मुक्ति आदि किसी की भी
१-'तेषां सर्वेषामात्मैकत्वसम्यग्दर्शनप्रतिपक्षभूतानां प्रतिबोधायेदं शरीर
कमारब्धम् । एक एव . परमेश्वरस्य-कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते, नान्यो विज्ञानधातुरस्ति।
. -~-शारीरक भाष्य १।३।१६