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जन-दर्शन में तत्त्व
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द्रव्य
रूपी
अरूपी १. पुद्गल
२. जीव ३. धर्म . ४. अधर्म ५. आकाश
६. श्रद्धासमय यहां कुछ पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण कर देना ठीक होगा। अजीवद्रव्य रूपी और अरूपी दो भेदों में विभक्त किया गया है । रूपी का सामान्य अर्थ होता है-रूपयुक्त । इस अर्थ में चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता दिखाई देती है। जैन दर्शन में रूपी का अर्थ केवल चक्षुरिन्द्रिय तक ही सीमित नहीं है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन चारों से जो युक्त है वह रूपी है ।' स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों एक साथ रहते हैं। जहाँ स्पर्श है वहाँ रसादि भी हैं, जहाँ वर्ण है वहाँ स्पर्शादि भी हैं । जहाँ इन चारों में से एक भी हो वहाँ शेष तीन अवश्य हैं । अतः जहाँ रूपी शब्द का प्रयोग हो वहाँ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण चारों की स्थिति समझनी चाहिए । पुद्गल के किसी भी अंश में ये चारों गुण रहते हैं, अंतः वह रूंपी है । इसकी विस्तृत चर्चा पुद्गल के स्वरूपवर्णन के समय की जायगी । जो रूपी न हो, उसे अरूपी समझना चाहिए । पुद्गल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण नहीं हैं अतः वे अरूपी हैं। .. ___ अस्तिकाय का अर्थ होता है प्रदेश-वहुत्व । 'अस्ति' और 'काय' इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है । अस्ति का अर्थ है विद्यमान होना
१.-रूपिरण : पुद्गला:
-तत्त्वार्य सूत्र ५४ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला :
-तत्वार्थ सूत्र, २२३