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जैन दर्शन में तत्त्व
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सकता; इसलिए जो वास्तविक है वह सब सत् है । सत् होने से सब एक है । जो सत् है वह सत् ही है, अतः वहाँ भेद का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । जहाँ कोई भेद नहीं है वहाँ अभेद ही है । इस प्रकार प्रभेदवाद की सिद्धि करने वाला पारमैनैड्स भेद को इन्द्रियजन्य भ्रान्ति वताता है । जितने भेद दृष्टिगोचर होते हैं सब इन्द्रियों के कारण हैं । हेराक्लैटस ने प्रभेद की प्रतीति में जो कारण बताया, पारमैड्स ने वही कारण भेद की प्रतीति में दिया । प्रभेद की प्रतीति ही सच्ची प्रतीति है और वह हेतुवाद के आधार पर सिद्ध की जा सकती है । यह वात पारमैनड्स ने कही । जैनों ने नेता का तर्कसंगत खण्डन किया और एकता के आधार पर ग्रभेद की स्थापना की ।
तीसरा पक्ष भेद और ग्रभेद दोनों का समर्थन करता है, भेद और भेद दोनों को स्वतन्त्र रूप से सत् मानकर दोनों में सम्बन्ध स्थापित करता है । न्याय-वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष नाम के दो भिन्न-भिन्न पदार्थ मानता है । वे दोनों पदार्थ स्वतन्त्र एवं एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । किसी सम्बन्ध विशेष के ग्राधार पर सामान्य और विशेष मिल जाते हैं । सामान्य एकता का सूचक है । विशेष भेद का सूचक है । वस्तु में भेद और प्रभेद विशेष और सामान्य के कारण होते हैं । एकता की प्रतीत प्रभेद के कारण है – सामान्य के कारण है । सब गायों में गोत्व सामान्य रहता है, इसलिए सब में "गो" गौ ऐसी एकाकार प्रतीति होती है। यही प्रतीति एकता की प्रतीति है । उसी प्रकार सव गाएँ व्यक्तिगत रूप से अलग भी मालूम होती हैं । उनका अपना भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व है । जाति और व्यक्ति का सम्बन्ध ही भेद और अभेद की प्रतीति है । वैसे दोनों एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न हैं, किन्तु समवाय सम्बन्ध के कारण दोनों मिले हुए मालूम होते हैं । इस प्रकार भेद और प्रभेद को भिन्न मानने वाला पक्ष दोनों को सम्बन्ध-विशेष से मिला देता है, किन्तु वास्तव में दोनों को भिन्न मानता है । यद्यपि जाति और