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जैन-दर्शन
अभेदवाद का समर्थन करने वाले भेद को मिथ्या कहते हैं । उनकी दृष्टि में एकत्व का ही मूल्य है, अनेकरूपता की कोई कीमत नहीं। जितने भेद या अनेक रूप हैं, सब मिथ्या हैं । हमारा अज्ञान भेद की प्रतीति में कारण है। अविद्याजनित संस्कारों के कारण भेद और अनेकरूपता की प्रतीति होती है। ज्ञानियों की प्रतीति हमेशा अभेद-मूलक होती है । तत्त्व अभेद में ही है, भेद में नहीं। दूसरे शब्दों में अभेद ही तत्त्व है। भारतीय परम्परा में उपनिषद् और वेदान्त के कुछ समर्थक अभेदवाद का समर्थन करते हैं। अभेदवादी एक ही तत्त्व मानता है क्योंकि अभेद की अन्तिम सीमा एकत्व है। वह एकत्व अपने-आप में पूर्ण व अनन्त होता है। जहाँ पूर्णता होती है वहाँ एकत्व ही होता
है, क्योंकि दो कदापि पूर्ण नहीं हो सकते । जहाँ दो होते हैं वहाँ . दोनों अपूर्ण व सीमित होते हैं । असीम व पूर्ण एक ही हो सकता . है । इसी हेतु के आधार पर भारतीय आदर्शवाद का प्रबल समर्थक
अद्वैत वेदान्त एक तत्त्व में विश्वास रखता है। विज्ञानवाद और शून्यवाद की अन्तिम भूमिका में भी इसी विचारधारा के दर्शन होते हैं ।
पाश्चात्य परम्परा में पारमैनेड्स अभेदवाद का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उसने कहा कि परिवर्तन वास्तविक नहीं है, क्योंकि वह बदल जाता है । जो वस्तु वास्तविक एवं सत्य है वह कदापि नहीं बदल सकती । जो बदल जाती है वह सत्य नहीं हो सकती। इन सारे परिवर्तनों के बीच में जो नहीं बदलता है वही सत्य है । जो अपरिवर्तनशील है वह सत् है, जो परिवर्तनशील है वह असत् है । जो सत् है वही वास्तविक है । जो असत् है वह वास्तविक नहीं है । जो सत् है वह हमेशा मौजूद है क्योंकि वह पैदा नहीं हो सकता। यदि सत् पैदा होता है तो वह असत् से पैदा होगा, किन्तु असत् से सत् पैदा नहीं हो सकता ।' यदि सत् सत् से पैदा होता है तो वह पैदा नहीं होता क्योंकि वह स्वयं सत् है। पैदा तो वह होता है, जो सत् न हो । जो सत् न हो वह पैदा हो ही नहीं
8-Ex nihilo nihil fit.