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जैन-दर्शन
में नहीं बदलता । द्रव्य का गुरण कभी नष्ट नहीं होता, भले ही उसकी अवस्थाएँ मिटती रहें और पैदा होती रहें । पर्यायदृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया जा सकता है और द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के
भेद की पुष्टि की जा सकती है । दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के भेद और भेद की कल्पना करना ही महावीर को अभीष्ट था ।
इस प्रकार ग्रात्मा और ज्ञान के विषय में भी महावीर ने वही बात कही ।' ज्ञान आत्मा का एक परिणाम है । वह सदैव बदलता रहता है। ज्ञान की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है किन्तु आत्मद्रव्य तो वही रहता है । ऐसी ग्रवस्था में ज्ञान और आत्मा भिन्न हैं । ज्ञान की आत्मा से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह आत्मा की ही एक अवस्था - विशेष है । इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा भिन्न हैं । यदि आत्मा और ज्ञान में एकान्त प्रभेद होता तो ज्ञान के नाश के साथ-ही-साथ आत्मा का भी नाश हो जाता । ऐसी अवस्था में एक शाश्वत आत्मद्रव्य की उपलब्धि न होती । यदि ज्ञान और आत्मा में एकान्त भेद होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर न होता । एक व्यक्ति के ज्ञान की स्मृति दूसरे व्यक्ति को हो जाती अथवा उस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे खुद को भी न हो पाता । ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अराजकता और अव्यवस्था हो जाती । इसलिए ज्ञान और ग्रात्मा का कथंचित् भेद और कथंचित् ग्रभेद मानना ही उचित है । द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान और आत्मा का अभेद मानना चाहिए, और पर्याय - दृष्टि से दोनों का भेद मानना चाहिए ।
आत्मा के आठ भेदों की बात भगवतीसूत्र में कही गई है । गौतम महावीर से पूछते हैं - हे भगवन् ! आत्मा के कितने प्रकार हैं ? महावीर उत्तर देते हैं- हे गौतम! आत्मा आठ प्रकार का कहा गया है । वे ग्राठ प्रकार ये हैं- द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और
१ - आचारांगसूत्र ११५५