________________
जैन-दर्शन में तत्त्व
१२७
अन्तर्गत मान लिया गया है। जीव और अजीव चेतन और प्रचेतन दोनों का स्वरूप - वर्णन परिवर्तन के बिना अपूर्ण है । परिवर्तन का दूसरा नाम वर्तना भी है । वर्तना प्रत्येक द्रव्य का आवश्यक एवं अनिवार्य गुरण है । वर्तना के अभाव में द्रव्य एकान्त रूप से नित्य हो जाएगा । एकान्त नित्य पदार्थ अर्थ क्रिया नहीं कर सकता । अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पदार्थ असत् है । ऐसी स्थिति में वर्तना - परिणाम - क्रिया -- परिवर्तन द्रव्य का आवश्यक धर्म है | प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही परिवर्तनशील है, अतः कालको स्वतन्त्र द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं । दूसरी बात यह मालूम होती है कि भगवतीसूत्र के उपर्युक्त संवाद में अस्तिकाय की दृष्टि से लोक का विचार किया गया है । जहाँ पर काल की स्वतंत्र सत्ता स्वीकृत की गई है वहाँ उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है। इसलिए महावीर ने पंचास्तिकाय में काल की पृथक् गणना नहीं की । काल-विषयक प्रश्न के ये दो समाधान हो सकते हैं । जहाँ पर काल की पृथक् गणना की गई है वहाँ पर छः द्रव्य गिनाये गए हैं । इन द्रव्यों का स्वरूप समझने से पहले हम तत्व का अर्थ तो अच्छा रहेगा । तत्व का सामान्य अर्थ समझ लेने पर भेद रूप द्रव्यों का स्वरूप समझना ठीक होगा ।
समझ लें तत्व के
जैनाचार्य सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ, आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में करते रहे हैं । जैन दर्शन में तत्त्वसामान्य के लिए इन सभी शब्दों का प्रयोग हुआ है । अन्य दर्शनों में इन शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ हो, ऐसा नहीं मिलता । वैशेषिकसूत्र में द्रव्यादि छः को पदार्थ कहा है', किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों की ही रखी गई है । सत्ता के समवाय सम्बन्ध से द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों को ही सत् कहा गया है । न्यायसूत्र में आनेवाले प्रमाणादि सोलह तत्त्वों के
१ - १/१/४ २-८/२/३ ३- १/१ / ८