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जन-दर्शन
जैन दृष्टि से लोक
विश्व के सभी दर्शन किसी न किसी रूप में लोक का स्वरूप समझने का प्रयत्न करते हैं। दार्शनिक खोज के पीछे प्रायः एक ही हेतु होता है और वह हेतु है सम्पूर्ण लोक । कोई भी दार्शनिक धारा क्यों न हो, वह विश्व का स्वरूप समझने के लिए ही निरन्तर बढ़ती रहती है। यह ठोक है कि कोई धारा किसी एक पहलू पर अधिक भार देती है और कोई किसी दूसरे पहलू पर । पहलुओं के भेद के रहते हुए भी सबका विषय लोक ही होता है। सारे पहलू लोक के भीतर ही होते हैं। दूसरे शब्दों में विभिन्न पहलू व समस्याएँ लोक की ही समस्याएँ होती हैं । जिसे हम लोग लोकोत्तर समझते हैं वह भी वास्तव में लोक ही है । लोक को समझने के दृष्टिकोण जितने विभिन्न होते हैं उतनी ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराएं संसार में उत्पन्न होती रहती हैं।
जैन दर्शन में लोक का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है :गौतम-भगवन् ! लोक क्या है ?
महावीर-गौतम ! लोक पंचास्तिकाय रूप है। पंचास्तिकाय ये हैं : धर्मास्तिकाय, अधमीस्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय' ।
भगवतीसूत्र का उपयुक्त संवाद यह बताता है कि पाँच अस्तिकाय ही लोक है। यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि महावीर ने लोक के स्वरूप में काल की गणना क्यों नहीं की ? जैन दर्शन के अन्य कई ग्रन्थों में काल का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत किया गया है, ऐसी दशा में महावीर ने लोक का स्वरूप बताते समय काल को पृथक क्यों नहीं गिनाया ? स्वयं भगवतीसूत्र में ही अन्यत्र काल की स्वतन्त्र रूप से गगाना की गई है, तो फिर उपरोक्त संवाद में काल को स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं गिनाया ?
इसका समाधान यही हो सकता है कि यहाँ पर काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य दोनों के
१-भगवतीसूत्र १३/४/४८१ २-२५/२, २५/४