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जन-दर्शन और उसका आधार
६१ की पूर्ति के लिए आगमेतर ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ हुई। यद्यपि आगे जाकर पुनः विस्तार का प्राश्रय लेना पड़ा और यह ठीक भी था, क्योंकि ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत होता जा रहा था और दार्शनिक वाद-विवाद बढ़ने लग गये थे। आचार्य उमास्वाति ने जैन-तत्त्वज्ञान, आचार, खगोल, भूगोल आदि अनेक विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन करने की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' लिखा । ग्रन्थ की भाषा भी प्राकृत न रखकर संस्कृत रखी । प्रागमेतर साहित्य का बीजवपन यहीं से होता है । प्राचार्य उमास्वाति और तत्त्वार्थसूत्र :
उमास्वाति कब हुए, इस विषय में अभी कोई निश्चित मत नहीं है । वाचक उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय तीसरी-चौथी शताब्दी है । इन तीनचार सौ वर्ष के बीच में उनका समय पड़ता है।
प्राचार्य उमास्वाति सर्वप्रथम संस्कृत-लेखक हैं, जिन्होंने जैनदर्शन पर अपनी कलम उठाई। उनकी भाषा शुद्ध एवं संक्षिप्त है। शैली में सरलता एवं प्रवाह है। उनका 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। इसकी शैली सूत्रशलो है,यह नाम से ही स्पष्ट है। इसमें दस अध्याय हैं जिनमें जन दर्शन और जैन आचार का संक्षिप्त निरूपण है । खगोल और भूगोल विषयक मान्यताओं का भी वर्णन है। यों कहना चाहिए कि यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल; यात्मविद्या, पदार्थविज्ञान, कर्मशास्त्र ग्रादि अनेक विषयों का संक्षिप्त कोष है।
प्रथम अध्याय में ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली निम्न वातों पर प्रकाश डाला गया है :-ज्ञान और दर्शन का स्वरूप, नयों का लक्षण, ज्ञान का प्रामाण्य । सर्वप्रथम दर्शन का अर्थ बताया गया है। तदनन्तर प्रमाण श्रार नय रूप से ज्ञान का विभाग किया गया है । फिर मति ग्रादि पाँच
१--पं० सुखलाल जी कृत तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० : २-ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणम् जानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम् ॥
राजवार्तिक, पृ०६८