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जैन- दर्शन
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काल दशवीं शताब्दी है । उनके बाद प्रसिद्ध टीकाकार शान्त्याचार्य हुए । उन्होंने उत्तराध्ययन पर बृहत् टीका लिखी । इनके बाद प्रसिद्ध टीका-कार ग्रभयदेव हुए । इन्होंने नव अंगों पर टीकाएँ लिखीं। इनका समय सं० १०७२ से ११३५ तक का है । इसी समय मलधारी हेमचन्द्र भी हुए जिन्होंने विशेषावश्यक भाष्य पर वृत्ति लिखी । आगमों पर संस्कृत टीका लिखने वालों में मलयगिरि का विशेष स्थान है । इनकी टीकाएँ दार्शनिक चर्चा के साथ-ही-साथ सुन्दर भाषा में हैं । प्रत्येक विषय पर सुस्पष्टः ढंग से लिखने में इन्हें अच्छी सफलता मिली है । ये बारहवीं शताब्दी के विद्वान् थे ।
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इन टीकाओं के अतिरिक्त अपभ्रंश अर्थात् प्राचीन गुजराती और राजस्थानी में संक्षिप्त टीकाएँ मिलती हैं । इन्हें 'टवा' कहते हैं । टबाकारों में लोकागच्छ के प्राचार्य धर्मसिंह मुनि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनका समय अठारहवीं शताब्दी है ।
दिगम्बर आगम :
दिगम्बर परम्परा का विश्वास है कि वीरनिर्वारण के बाद श्रुत का क्रमशः ह्रास होता गया । यहाँ तक कि ६८३ वर्ष के बाद कोई अंगधर या पूर्वधर ग्राचार्य रहा ही नहीं । हाँ, अंग श्रौर पूर्व के अंशमात्र के ज्ञाता कुछ प्राचार्य अवश्य हुए हैं । अंग और पूर्व के अंशधर आचार्यों की परम्परा में होने वाले पुष्पदन्त और भूतबलि प्राचार्यों ने 'षट्खण्डागम' की रचना दूसरे ग्रग्राह्यरणीय पूर्व के ग्रंश के ग्राधार से की और ग्राचार्य. गुणधर ने पाँचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद के अंश के आधार से 'कषायपाहुड' की रचना की । "
इस प्रकार ऊपर लिखे गए श्रागम और उनकी टीकाएँ श्वेताम्बर परम्परा को ही मान्य हैं । दिगम्वर परम्परा के मतानुसार प्राचीन ग्रागम लुप्त हो गए। उनके ग्राधार से लिखे गए षट्खण्डागम, कषायपाहुड ग्रादि ग्रन्थ ग्रागम की ही भाँति प्रमाणभूत हैं । षट्खण्डागम ग्रौर कपायपाहुड पापा के प्रतिरिक्त महाबन्ध का नाम भी उल्लेखनीय है, जिसकी
१ - धवला, पु० १, प्रस्ता० पृ० ७१