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________________ ८६ जैन-दर्शन और उसका आधार रचना भूतवलि प्राचार्य ने की है। इन तीनों ग्रन्थों का विषय जीव और कर्म से सम्बन्धित है। मूलग्रन्थों में दार्शनिक चर्चा का कोई खास स्थान नहीं है । हाँ, वाद में लिखी जाने वाली टीकाओं में खंडन-मंडन खूब मिलता है। पट्खण्डागम की रचना पुष्पदन्त और भूतबलि प्राचार्यों द्वारा और कषायपाहुड की रचना प्राचार्य गुणधर द्वारा विक्रम की दूसरी शताब्दी के वाद हुई है और उनपर धवला और जयधवला जैसी टीकारों की रचना वीरसेनाचार्य ने नवमी शताब्दी में की है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राचार्य कुन्दकुन्द-कृत ग्रन्थ पागम के समान ही प्रमाणभूत माने गये हैं। उनके ग्रन्थों में प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, अष्टपाहुड, नियमसार आदि प्रसिद्ध हैं । आत्मा, ज्ञान, सप्तभंगी, द्रव्य, गुण प्रादि सभी विपयों पर कुन्दकुन्द ने अपनी कलम चलाई है । व्यावहारिक और नैश्चयिक दृष्टियों पर विशेष भार दिया है । अमृत चन्द्र आदि विद्वानों ने उनके ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी हैं । कुन्दकुन्द का समय अभी विवादास्पद है। कुछ लोग उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी मानते हैं तो कुछ पाँचवीं और छठी शताब्दी। स्थानकवासी आगमग्रन्थ : श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा के मत से दृष्टिवाद को छोड़कर सभी अंग सुरक्षित हैं-जैसा कि श्वेताम्बर (मूर्तिपूजक) परम्परा मानती है । अंगवाह्य ग्रन्थों में वारह उपांग वे ही हैं, जो श्वेताम्बरों को मान्य हैं । इन तेईस ग्रन्थों के अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रन्थ भी सुरक्षित हैं, ऐसी इस परम्परा की मान्यता है : ४ छेद :-----व्यवहार, २-वृहत्कल्प, ३-निशीथ, ४-दशाश्रुतस्कन्ध । ४ मूल :- १-दवावकालिक, २-उत्तराव्ययन, ३–नन्दी, ४-अनुयोग। इनके अतिरिक्त एक आवश्यक मूत्र भी है। १-जैन दानिक नाहित्य का इतिहास, पृ० ०
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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