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जैन-दर्शन और उसका आधार इसलिए मिथ्या हैं कि इनका आधार मात्र ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। कुछ सहस्र वर्षों के उपलब्ध साहित्य को देखकर, केवल उसी पर से किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँच जाना, सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल है। कौन धारा प्राचीन है, इसका जब हम निर्णय करते हैं, तो उसका अर्थ होता है-कौन सबसे प्राचीन है। जहाँ पर सबसे प्राचीनता का प्रश्न अाता है, वहाँ पर ऐतिहासिक दृष्टि कभी सफल नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं अधूरी है। जब तक वह अपने-आपको पूर्ण न बनाये, उसका निर्णय हमेशा अधूरा रहेगा-सापेक्ष रहेगासीमित रहेगा। अपनी मर्यादा का उल्लंघन किए बिना उसका जो निर्णय होगा, वह सम्भवतः सत्य हो सकता है। इतिहास का
आधार वाह्य सामग्री है । जितनी सामग्री उपलब्ध होगी, उतने ही परिमाण में उसका निर्णय सत्य या असत्य होगा। वर्तमान समय का इतिहास इस बात का दावा नहीं कर सकता कि उसकी सामग्री पूर्ण है, क्योंकि जहाँ पूर्णता है वहाँ मतभेद नहीं हो सकता और जहाँ मतभेद नहीं है वहाँ इतिहास स्वयं समाप्त हो जाता है। बात यह है कि जहाँ मतभेद नहीं है वहाँ सब कुछ एक है, और जहाँ सर्वस्व है वहाँ पूर्णता है-वहाँ न भूत है, न वर्तमान है, न भविष्य है। - सत्य यह है कि अपने-आप में दोनों विचारधाराएँ अनादि हैं। न तो ब्राह्मण-परम्परा अधिक प्राचीन है और न श्रमणपरम्परा । दोनों सदैव साथ-साथ चली हैं और साथ-साथ चलती रहेंगी। ये दोनों परम्पराएँ ऐतिहासिक परम्पराएँ नहीं हैं, अपितु मानव-जीवन की दो धाराएँ हैं । इन दोनों धाराओं का आधार दो सम्प्रदाय-विशेष नहीं हैं, अपितु सम्पूर्ण मानवजाति है। मानव स्वयं इन दो धाराओं का स्रोत है। दूसरे शब्दों में ये दोनों धाराएँ मनोवैज्ञानिक सत्य पर अवलम्बित हैं। मानव का स्वाभाविक प्रवाह ही ऐसा है कि वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता है। कभी वह एक धारा को अधिक महत्त्व देता है तो कभी दूसरी को। सत्तारूप से दोनों धाराएं उसमें हमेशा मौजूद रहती हैं। जब तक कि वह मानवता के स्तर पर रहता है, उससे सर्वथा ऊपर नहीं