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जैन-दर्शन
तो कभी नवीनता का विशेष आदर हुआ । दोनों एक दूसरे से प्रभावित भी होते रहे, और वह प्रभाव काफी स्थायी भी होता रहा । विविधताओं के वैसे तो अनेक रूप रहे हैं, किन्तु ये सारी विविधताएँ दो रूपों में बाँटी जा सकती हैं :- एक वैदिक परम्परा और दूसरी अवैदिक परम्परा । ये दोनों परम्पराएं क्रमशः ब्राह्मण-परम्परा और श्रमण- परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हैं । ब्राह्मण परम्परा ग्रधिक प्राचीन है या श्रमण परम्परा ? इस प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर देना जरा कठिन है ।
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ब्राह्मण-परम्परा का प्राचीनतम उपलब्ध ग्राधार वैदिक साहित्य है । वेदों से अधिक प्राचीन साहित्य दुनिया के किसी भी भाग में उपलब्ध नहीं है । दुनिया की कोई भी दूसरी संस्कृति इतने प्राचीन साहित्य का दावा नहीं कर सकती । यह एक ऐतिहासिक सत्य है । ' इसी सत्य के आधार पर ब्राह्मण-संस्कृति का यह दावा है कि वह दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति है ।
दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के उपासक यह दावा करते हैं कि श्रमण-संस्कृति किसी भी दृष्टि से वैदिक संस्कृति से कम प्राचीन नहीं है । औपनिषदिक साहित्य, जो कि वेदों (संहिता - मंत्रभाग) के बाद का साहित्य है श्रमण परम्परा से पूर्णरूप से प्रभावित है | वैदिक मान्यताओंों का उपनिषद् के तत्त्वज्ञान से बहुत विरोध है । जो प्रचार और विचार वैदिक भाग में उपलब्ध होते हैं, उनसे भिन्न ग्राचार-विचार उपनिषदों में मिलते हैं । यह ठीक है कि उपनिषद् ब्राह्मण-परम्परा द्वारा मान्य हैं, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे श्रमण परम्परा के प्रभाव से सर्वथा अछूते हैं । वास्तव में उपनिषद् का निर्माण करने वाले ऋषियों ने वैदिक मान्यताओं के प्रति एक प्रकार का छिपा विद्रोह किया और उस विद्रोह के पीछे श्रमरण-परम्परा का मुख्य हाथ था ।
ब्राह्मण-परम्परा का यह दावा कि वह भारत की या विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति है, ठीक नहीं । उसी प्रकार श्रमण परम्परा की यह धारणा कि उसी के प्रभाव से उपनिषदों के ऋषियों की दृष्टि में अकस्मात् परिवर्तन हुम्रा, मिथ्या है । ये दोनों धारणाएँ