SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४७ ) यह ईश्वर माननेवाले को ठीक होता है। और वह केवल कल्पनासष्टि के तरंग मात्र हैं। और यह कथन सत्य नहीं हो सकता । क्यों कि प्रथम ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता। और जो सर्वज्ञ, निष्क्रिय प्रभु है उस का अव्याकृत माया में स्फुरण कैसे होगा ? सांख्यादि दार्शनिक भी इस का विरोध करते हैं। फिर इस कथन को सत्यता का आधार ही कहाँ रहा ? भूत शव्द ही बतलाता है कि वह कोई जीववाला बीजक होना चाहिए । जैनशास्त्र में पृथ्विकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीव कहे हैं । उस के सूक्ष्म और बादर दो प्रकार कहे हैं। जो सूक्ष्म है वह चौदह राजलोक में व्यापक है। वे जलाये जल नहीं सकते, तोडने पर तूट नहीं सकते, केवल सर्वज्ञ या दिव्य चक्षुधारी उस को देख सकते हैं। चर्मचनु से वे देखा नहीं जाता । और जो बादर हैं वे स्थूल होने से सभी देख सकते हैं। ऐसा मानने से ईश्वर को भूत बनाने की परेशानी नहीं होती। वे भूत एकमें से दूसरे नहीं हुए मगर व्यक्तिरूप से वे स्वतंत्र ही हैं। उन के शब्दों के अर्थ से भी यह सिद्ध होता है। उन के भेद भी भिन्न भिन्न हैं और वे शाश्वत भी हैं। जिनेश्वर महाप्रभुने जगत में ६ द्रव्य ही बतलाये हैं । वे सब शाश्वत हैं और उन का अभ्यास हरएक मुमुक्षु को करना चाहिए। ६ द्रव्य ये हैं। १ धर्मास्तिकाय ( गतिक्रियापरिणत द्रव्य ) २ अधर्मास्तिकाय (स्थितिक्रियापरिणत द्रव्य )
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy