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(१८) ३ आकाशास्तिकाय ( अवकाश देनेवाला ). ४ पुद्गलास्तिकाय ( पुद्गल जिंस का गलना, पडना, नाश
होना, मिलना आदि स्वभाव है. वह ) ५ जिवास्तिकाय ( अनंत वीर्यः) । ६ काल ( नवीन और प्राचीन पुद्गलों का कारणभूत जिस को उपचार से द्रव्य कहते हैं ) ।
तात्पर्य जैनदर्शन विषयक कुछ लिखने का आशय यह हैं कि-विश्व में सत्यशोधक प्राणी सत्य की खोज करें। और हंस क्षीरनीर विवेक की तरह सार वस्तु को ग्रहण करें। और जैनदर्शन कितना विशाल है, वह सर्वज्ञकथित है, किसी भी दोषापत्ति से दूर है, उस के सिद्धान्त सर्वमान्य हो सकें वैसे हैं, उस में संकुचितता को जरा भी स्थान नहीं है ऐसा समजे और यही कहने का अन्तिम ध्येय है।
प्रसिद्धकर्ता.