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________________ ( ३१ ) और इसीमें संसार की वृद्धि होती है। इसी लिए फल की ईच्छासे कभी सत्कार्य नहीं करना चाहिए। और मैं यह कहता हूं, मैंने यह किया ऐसा मिथ्याभिमान भी ‘सत्कार्य में करना न चाहिए | इस से कर्मबंध होता है। निश्चयनय .. की दृष्टिसे देखेंगे तो कोई किसी को कुछ देता नहीं और कोई किसीसे कुछ लेता नहीं। इस की स्पष्ट समज .श्रीमद् महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज विरचित १२५ गाथावाले स्तवन की ४१ वी गाथा में दी है। उक्त गाथा, उस स्तवन से ले कर अर्थके साथ पाठकों के विज्ञानार्थ हम यहां देते हैं । निश्चय नय की दृष्टि से दया का वास्तविक स्वरूप क्या है वह इस गाथा से समज में आता है। दान हरणादिक अवसरे, शुभ अशुभ संकल्प। . दिए हरे तुं निज रूपने, मुखे अन्यथा जल्पे ।। कोई प्रतिपक्षी यहाँ शंका उठाता है कि अगर यह जीव, अन्य जीव को, निश्चय नय की दृष्टिसे जब दानहरणादिक नहीं करता तो जीव को कर्मबंध कैसे होगा ? उस शंका के निराकरण . में विद्वान् उपाध्यायजी महाराज उक्त गाथा को सन्मुख रखते हैं । गाथा का भावार्थ यह है कि-हे चेतन ! तूं पौद्गलिक पदार्थों का दान हरणादिक नहीं करता है। मगर जिस समय तूं दान देता है तब शुभ संकल्प से अपने स्वरूप को दान देता है। आत्मभाव को दानरूप से परिणत , कर के शुभकर्म का उपार्जन करता है । और जिस समय
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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