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( ३२ ) हरणादिक करता है तब अशुभ संकल्प से निजरूप का हरण करता है । आत्मभाव को ही अशुभ संकल्प से हरण रूप में परिणित कर के अशुभकर्म उपार्जन करता है । हे आत्मा ! इस तरह तूं निजरूप का ही दानहरण करता है। शुभ अशुभ संकल्प से आत्मभाव को दानहरणादि रूप से परिणित कर के कर्म बांधता है। पौद्गलिक पदार्थ तेरे से भिन्न होने पर मुख से अन्यथा कहते हैं। वे कहते हैं कि मैंने धनादि का दान दिया, मैंने धन वगेरह की चोरी की । मगर जो तेरा नहीं है उस को कैसे ले-दे सकता है ? इस पर से सार यह लेने का है कि वाह वाह, कीर्ति या लालसा के खातर दया या परमार्थ के कार्य नहीं करते हुए केवल आत्महित के वास्ते और आसक्ति छोड कर करना चाहिए । गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि--" कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" हे अर्जुन ! तूं जो कोई कार्य कर वह आसक्ति को छोड के कर-फलेच्छा को छोड दे । सर्व कार्य निष्काम बुद्धि से और अहंभाव छोड कर करना चाहिए यही कहने का फलितार्थ है और उसी से ही सच्ची स्वदया होती है । जो महात्मा लोग आत्मा को केवल ज्ञायक स्वभाव से ग्रहण करते हैं वेही विश्व में परमसुख को पाते हैं। "यह कार्य का कर्ता मैं हूं" " यह कार्य मैंने किया" ऐसा अहम् पद जब किसी पारमार्थिक कार्य के साथ लगता है तव कर्मवन्ध होता है। इस लिए मैं प्रत्येक कार्य अपनी आत्मा के उत्कर्प के वास्ते करता हूँ ऐसी उच्च भावना हरएक आत्मार्थी को करनी चाहिए।