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(३०) एक समय प्रेसिडेन्ट हुवर कोई सभामें जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने सुवर के बच्चे को कीचडमें फंसा हुआ देखा। और वह विचारा मरने की तय्यारीमें था । यह देख कर प्रेसिडेन्ट. हुवरने कीचडमें जाकर उस बिचारे को बचाया । मगर उन के सव कपडे कीचड से गन्दे हो गये तथापि वे उस की परवा न करते सभा को चले गए। परन्तु उनके ऐसे गन्दे कपडे, देख कर सभी सभाजन चकित हुए और कारण पूछा । उन्होंने सर्व घटना कही। तब सभाजन कहने लगे कि आपने उस विचारे पर दया कर के उसकी जान बचाई। तब प्रेसिडेन्ट महाशयने जो उत्तर दिया वह स्मरणमें रखने लायक है । उन्होंने कहा कि मैंने वह जीव पर दया नहीं की मगर उसको देख कर मेरी आत्मा दुःखी हुई और मैंने अपनी आत्मा के सुखः के वास्ते यह कार्य किया, न कि उस जीव पर की दयासे । इस तरह स्वदयामें परदया आजाती है। मगर अकैली परदया वह कर्मवन्ध का कारण होती है । इस लिए उस को अवश्य त्यागनी चाहिए । अकैली परदया यानि जो कोई दया का कार्य कीर्ति और मान या ऐहिक लालसा की तृप्ति के वास्ते करना यह है। इससे पुण्य होता है यह सत्य है मगर जैसे पाप को लोहश्रृंखला के स्वरूप माना है वैसे ही पुण्यको सुवर्ण शृंखला के समान कहा है । इस लिए दया के प्रत्येक कार्य आसक्ति छोड कर करना चाहिए । फलकी श्राशा भी नहीं करना चाहिए । उपार्जित पुण्य का भी. क्षय करना होता है । और उस के क्षय के वास्ते जन्मान्तर भी करने पड़ते हैं