SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २९ ) अहिंसा परमो धर्मः। जैनधर्म का यह भी सर्वमान्य और सर्वोत्तम सिद्धान्त है। वह मुद्रालेख भी कहा जा सकता हैं। जिस के यथानुरुप पालनसे जीवात्मा अन्तमें अपना साक्षात्कार करता है। विश्वमें मुख्य दो पदार्थ है, जड और चेतन । संसारी जीवों की स्थिति मिट्टीसे मिश्रित सुवर्णके बरोबर है। सुवर्णमें मिट्टीं अनादि समय से लगी है उसी तरह जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है। सुवर्ण जब आग में तप्त होता है तब शुद्ध और स्वच्छ होता है वैसे ही आत्मा जब सर्वथा कर्ममलसे मुक्त होता है। तब ही वह परमात्मा कहलाता है। और मुक्तगामी होता है। कर्म के उच्छेदमें अहिंसा वह अमोघ और अमूल्य शस्त्र है। पांच व्रत जो दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहत्व नाम से प्रसिद्ध है और जिस का स्वीकार उपनिषदोंने भी किया है। वे सभी अहिंसामें अन्तर्भावित है। और इसी लिए अहिंसा वह परम धर्म है। अहिंसा के दो भेद हो सकते हैं-(१) स्वदया (२), परदया । स्वदया अर्थात् अपना श्रात्मा कोई भी अशुभ चिंतन, आचरण और कार्य से लिपट न जाय ऐसा वर्तन वह स्वदया कही जा सकती है । संक्षेपमें स्वदया अर्थात् आत्मरक्षा करना यह है । परदया अर्थात् परजीवों की रक्षा करना । उनके प्राणों को दुःखी न करना अथवा उनको प्राण से विमुक्त न करना। वास्तविकमें परदया स्वदयामें अन्तर्भावित होती है। क्यों कि अन्य जीवों की रक्षा वह भी अपनी आत्मा के सुख के वास्ते है ।।
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy