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( १८ ) किसी एक अंश को यथार्थरुपसे समझने के लिये एक ही घष्टिकोण संपूर्ण नहीं माना जाता-विविध दृष्टिबिन्दु से ही। संपूर्ण सत्य का प्रकाश होता है ।
भिन्न भिन्न दृष्टि से देखने पर ही संपूर्ण सत्य को यथार्थ रुपमें जान सकते हैं। वास्तविकमें यह विश्व असंख्य तत्त्व तथा पर्यायों का समह स्वरूप है और यथार्थ ज्ञानप्राप्ति के साधन इतने अपूर्ण है कि अपने परिचित दृष्टिकोण से प्रायः ही हम संपूर्ण सत्य को प्राप्त कर सकते हैं । केवलं सर्वज्ञ ही संपूर्ण सत्य को पहिचान सकते है । हम तो एकांगिक विचार और अपूर्ण स्पष्टिकरण के अधिकारी हैं। ऐसी दशामें पूर्ण सत्य की सीमा को हम स्पर्श भी नहीं कर सकते। . .
(२). काशी के स्वर्गस्थ प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पंडित । श्री राममिश्र शास्त्रीजी सुजन संमेलन नामक पुस्तक में जैन सम्बन्धि प्रथम व्याख्यान द्वारा स्याद्वाद के विषय में कहते हैं कि:-अनेकान्तवाद एक ऐसी चीज है जिस का हरएक को वीकार करना पड़ेगा। इतना कह कर वे विष्णुपुराण के अध्याय ६ द्वितीयांश के श्लोक का निम्न लिखित भावार्थ बतलाते हैं ।
. पराशर महर्पि कहते हैं कि-" वस्तु वस्त्वात्मक नहीं है"। इस का अर्थ यह है कि कोई भी वस्तु एकान्तसे एकरूप नही है । जो एक समय सुख के हेतु होती है वही अन्य समय दुःख