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र्षक है। उस सिद्धान्तमें जैनधर्म की विशेषतायें भरी हुई हैं । उस विशेपता के प्रभाव से स्याद्वाद-जैनदर्शन की अद्वितीय स्थिति दृष्टिगोचर होती है, परन्तु कईएक लोग स्याद्वाद को केवल गूढ शब्दप्रयोग अथवा हास्यास्पद मानते हैं।
"जैनधर्ममें स्याद्वाद शब्दद्वारा जो सिद्धान्त प्रकाशमान हो रहा है उनको तथारुपमें न समझने के कारण ही कतिपय लोगोंने उस सिद्धान्त का उपहास किया है। वह केवल अज्ञानता का ही प्रभाव है । कईएक महाशय उनमें दोष तथा भिन्न २ अर्थ का आरोपण करना भी नहीं चूके है। मैं तो यहां तक कहने का साहस करता हूं कि इस दोषसे विद्वान् शंकराचार्य जैसे भी मुक्त नहीं है। उन्होंने भी स्याद्वादधर्म प्रति अन्याय ही किया है । साधारण विद्वान् की ऐसी भूल किसी तरह भी क्षम्य मान ली जाय, परन्तु मुझे स्पष्ट कहने की आज्ञा मिले तो कहूंगा कि भारतवर्ष के ऐसे विद्वान् पुरुषों का यह अन्याय हमेशां के लिये अक्षम्य गिनना चाहिये । यद्यपि मैं तो खूद उस महर्पि की तरफ मानदृष्टि से ही देखता हूं तथापि मुझे साफ २ मालुम होता है कि श्रीमान् शंकराचार्यजीने “विवसन समय-अर्थात् नग्न लोगों का सिद्धान्त " यह अनादर सूचक शब्दप्रयोग जैनधर्म के शास्त्रों के विषयमें किया है वह केवल जैन ग्रंथों के अनभ्यास का ही परिणाम है। स्याद्वाद यानि .जैनधर्म वस्तुतः सत्यस्वरूप का ही प्रेरक है। मैं एक बात खास जोर देकर कहना चाहता हूं कि-समस्त विश्व को अथवा उन के
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