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( १६ ) . था उस समय आर्यधर्म के पक्षपाती धर्मान्ध गुरुओंने अपने २ मतामहमें विकल हो इस स्याद्वाद धर्म पर अन्याय, किया है यानि परिपक्व दृष्टि विना जो तुच्छ आक्षेप-विक्षेप कर अपनी कदाग्रही बुद्धि का परिचय जगत को कराया है इस से वास्तव में तो सूर्य की सामने धूल फेंकनेवाले की तरह अपने २ धर्म का गौरव घटाया है। क्यों कि सत्य वस्तु कदापि छुपी नहीं रह सक्ती यह बात निर्विवाद है। आज वे ही आर्यधर्म के धर्मान्ध गुरुओं के धुरंधर विद्वान् और समर्थ शिष्य लोग स्याद्वाद धर्म का वास्तविक स्वरुप और उन की विशालता देख कर मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहे हैं । निम्नलिखित अभिप्रायों से पाठक इस बात को भली भांति समझ सकेंगे। स्याद्वाद धर्म संबंधी अभिप्रायः
जैनधर्म-स्याद्वाद सिद्धान्त के विषय में पं. लालचंद मगवान गांधीने "जैन पत्र ता. १२ मे १९२९ पृष्ठांक ३४५" में जो उल्लेख किया है उसमें लिखा है कि 'सरस्वती' मासिक के भूतपूर्व संपादक पं०: महावीरप्रसाद त्रिवेदीने स्याबाद के संबंधमें मर्मस्पर्शी भाषामें इस मुजब अपना उद्गार प्रगट किया है:
" काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्री मुख्य अध्यापक श्रीयुत् फणिभूपण वावू एम; ए. महाशयने स्याद्वाद धर्मजैन सिद्धान्त पर अपना अभिप्राय प्रगट किया है कि:"जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त अति महत्त्वपूर्ण और आक