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है इस लिए श्रात्महितार्थी जनों को चाहिए कि सत्कार्य
हमेशां निष्काम बुद्धि से और फल की चाहना. से रहित .. करें जिस से शुभ विभाव परिणाम हो नहीं । प्र० श्री ऋजुसूत्र'नय की अपेक्षा से धर्म कैसे समजना चाहिये ? उ० श्री ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से जब तक आत्मा का शुद्ध
उपयोग स्वभाव रहता है तब तक धर्म और जब तक शुभ , और अशुभ विभाव परिणाम रहता है तब तक पुण्य
और पाप समजना चाहिए । प्र० एवंभूत नय की अपेक्षा से धर्म कैसे समजना चाहिए ? . १० आत्मा का स्व-स्वभाव परिणाम वही एवंभूत नय की
अपेक्षा से धर्म कहा जाता है। प्र. जिन पूजा में मन-वचन और काया के शुभ योग से
द्रव्याश्रव होता है इस से क्या स्त्र-परिणामरूप धर्म
नष्ट होता है ? उ० नहीं, उस से स्व-परिणामरूप धर्म नष्ट नहीं होता | जब
तक आत्मा की योगक्रिया बंध नहीं हुई है तब तक आत्म, योगारंभी है। किन्तु जिन क्रियाओं के करने से स्व-स्वभाव-परिणतिरूप आत्मिकं धर्म नष्ट होता हो उन को नहीं करना चाहिए किन्तु वीतराग के पूजादि से तो
आत्मिक धर्म की पुष्टि होती है फिर उस का आदर क्यों नहीं करना ? तात्पर्य यह है कि जिनपूजा से द्रव्याश्रय होता है तथापि वह आत्मिक धर्म को पुष्ट करनेवाली