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सुरत पधारे, सं. १९७१ का चौमासा सुरत में किया वहां पर साधुओं को दीक्षा दे कर विहार करके जगडीया ओर भरुच की यात्रा करते हु। कावी तीर्थ हो करके पादरा पधारे, वहां पर शरीर में अशाता होने के कारण बड़ौदा पधारे, शरीर अच्छा होने के बाद विहार करके रास्ते में तीर्थोकी यात्रा करते हुए मुम्बइ पधारें, वहां पर नगरसेठ रतनचंद खीमचंदभाई, मुलचंद हीराचंद भगत तथा प्रेमचंद कल्याणचंदभाई, केसरीचंद कल्याणचंदभाई तथा मुम्बई संघ समस्तने आनंद पूर्वक प्रवेश महोत्सव कराया. बाद में श्री संघ के आग्रह से सं. १६७२ का चौमासा लालबाग में किया, उस समय में आपश्रीने व्याख्यान में भगवती सूत्र वांचा. आपश्री के मुखारविंदसे व्याख्यान सुनते हुऐ श्री संघ को बहुत -
आनंद हुआ, वहां के श्री संघने आपश्री को आचार्य पद में स्थापित करने की अर्ज की, आपश्री को पदवी लेने की इच्छा नही थी तो भी श्री संघ के आग्रह से विनंती स्वीकार की, क्यों कि ( अलुब्धा अपि गृहणांति भृत्याऽनुग्रह हेतुना) श्री संघने धामधूमसे उत्सव किया; शजय, गिरनार, आबु आदि पंच तीर्थ की रचना की और विधिपूर्वक प्राचार्य पद मे स्थापित किये. उस समयके वाद में आपश्रीने दूसरा चौमासा श्री संघ के आग्रह से वहां किया, चौमासा समाप्त होनेके वाद विहार कीया रास्ते में तीन साधुको दीक्षा दी. बाद में सुरतवाली कमलावाईकी विनति स्वीकार करके बुहारी पधारे, वहां पर के श्री संघ समस्त के आग्रहसे चौमासा किया, और वासुपूज्य भगवान की प्रतिष्ठा की, और स्वामी वच्छल वगेरे बहुत धर्मकार्य हुआ. श्री संघ के
आग्रह से सं. १९७४ का चौमासा वहां ही किया. वाद साधु साध्वी तीन को दीक्षा दी. बाद में सुरत पधारे, और कल्याणचंद घेलाभाई तथा पानाचंद भगुभाई के और श्री संघ के श्राग्रह से वहां पर शीतलवाड़ी उपाश्रय में चौमासा किया, और पानाचंदभाईने श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार वनवाया
और उजमणा कीया. उस समय में आपश्रीने अपने दो शिष्य रत्नों को ..उपाध्याय तथा प्रवर्तक पद दे कर सुशोभित कीये. प्रेमचंदभाई केसरीचंदभाई