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में कहा है कि निश्चय धर्म अधर्म का क्षयकर्ता है और मोक्ष सुख को देनेवाला है और वह निश्चयधर्म धर्म और अधर्म - पुण्य और पाप के क्षय के कारणभूत है । अब वह -शैलेषी के चरम समय में होनेवाले निश्चयधर्म का जो जो साधन खुदखुद के गुणस्थानक को आश्रय कर के रहे हैं वे “ व्यवहार धर्म " कहलाते हैं जैसे " वर्षति पर्जन्यः " " मेघ वरसता है " यहाँ वास्तविक रीति से देखने पर ज्ञात होगा कि - मेघ वरसता नहीं किन्तु मेघ में रहा हुआ जल बरसता है, किन्तु कार्य कारण के अभेद उपचार से " मेघ बरसता है " ऐसा कहा जाता है वैसा ही " व्य- बहार धर्म " कहलाता है किन्तु वह निश्चय धर्म की साधना का ही कारण है । बादल और जल जैसे अभिन्न हैं वैसे ही व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म अभिन्न है क्यों कि कार्य-कारणभाव सदा अभिन्न ही रहते हैं । तब फिर जैसे व्रत प्रत्याख्यानादि व्यवहार धर्म हैं वैसे ही पूजादि भी व्यवहार धर्म में ही हैं । इस लिए व्रत - प्रत्याख्यान धर्म समजना और पूजादि द्रव्यस्तव में धर्म नहीं समजना यह केवल मूर्खता ही है ।
'प्र० शुभाशुभ विभाव परिणाम अर्थात् क्या ?
० शुभ विभाव परिणाम वह पुण्य और अशुभ विभाव परिणाम अर्थात् पाप यह समजना चाहिये ।