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________________ (१४६ ) प्र. कोई कहता है कि-पूजादि द्रव्यस्तव में शुभ परिणाम से पुण्यबन्ध होता है किन्तु उस में खास कोई धर्म मालूम नहीं होता और व्रत करने से जैसे मन आनंदित होता है वैसा उस में कुछ भी नहीं होता। कारण यह है किव्रत में आरंभ नहीं है और पूजादि में प्रारंभ होता है। और भी जहाँ तक कर्म होते हैं वहाँ तक जीव को संसार में भ्रमण करना होता है और पापप्रकृति भी कर्म हैं वैसे ही पुण्यप्रकृति भी कर्म हैं और दोनों के क्षय के बिनाशुभ और अशुभ कर्मों के क्षय के विना आत्मा मोक्ष में नहीं जा सकता। धर्म उसको कहते हैं कि जिस में आत्मा विभाव स्वभाव का-आत्मरमण से भिन्न स्वभाव का त्याग कर के खुद के-स्वस्वभाव में रमण करता है। पुष्पादि के आरंभ से होती पूजा में आत्मा विभाव स्वभाव में रहता है इस से धर्म होता नहीं इस लिए पूजादि द्रव्यस्तव आदर करने योग्य नहीं है, किन्तु निरारंभी व्रत परिणाम में आत्मा स्व-स्वभाव में मग्न रहने से उस व्रत के परिणाम से-भावस्तव से धर्म होता है । इस लिए संक्षेप में द्रव्यस्तव के बजाय भावस्तव ज्यादा आदरणीय है ? उ. यह वाती योग्य नहीं है। ऐसा कहनेवाले धर्म के मर्म को सचारुरूप से समजते नहीं है क्यों कि निश्चयधर्म शैलेपी करण के अन्त में अर्थात् १४ वें गुणस्थानक के मन्द में
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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