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________________ (१४३) भावों से पड्काय के रक्षक होकर वे भवजल को पार कर जाते हैं। प्र० कारणवशात् मुनि को जल में गमन करते हुए, जल में तैरनेवाले जल-जीवों की, दया भावना के परिणाम क्या निष्फल हैं ? उ० नहीं, मुनि के नदी को पार करते हुए दया के परिणाम निरर्थक नहीं है और ऐसे ही श्रावकादि को पूजा के समय पुष्पादि जीवों के दया के परिणाम निरर्थक नहीं है। प्र. अगर जिनेन्द्र-पूजा निरवद्य हैं तो मुनिवर्ग क्यों नहीं करता ? उ० जिनपूजा वह रोगीजन को औषध के समान है। गृहस्थ श्रावकवर्ग मलीनारम्भरूपी रोग से ग्रसित है । वह मलीनारम्भरूपी रोग की शान्ति के लिए शुभ आरम्भ स्वरूप जिनवर पूजा औपध के समान है किन्तु मुनिवर्ग संपूर्ण सावध क्रियायों से निवृत्त होते हैं उन को मलीनारम्भादि कोई रोग नहीं तो फिर औषधरूपी पूजा की क्या आवश्यकता ? प्र० मुनिमहाराजों को और श्रावक को कौन से 'स्तव' हितकर है ? उ. मुनिमहाराजों को 'भावस्तव' कहा है क्यों कि द्रव्य. स्तव में सावध क्रिया रहती है और वह मुनिओं को अहित
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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