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(१४२) में आरम्भ माननेवाला क्या दान, वंदन, आदेश: आदि क्रियायों को नहीं करता ? और दान करना, वंदन करना
आदि क्रियायों में वायुकायादि की विराधना क्या नहीं होती ? और दानादि प्रवृत्तियों को स्वीकार के विना क्या वह क्षणभर भी टिक सकता है ? अगर यह कहा जाय कि दानादि प्रवृत्तियाँ करते हुए श्राशय शुभ होता है, किसी भी जीवविनाघना का आशय वहाँ नहीं होता तो हम भी कहते हैं कि जिनेन्द्र पूजा में हमारा भी आशय शुभ
ही होता है। प्र. पुष्पादि जीवों के प्रारम्भ से पूजा सावद्य-सपाप नजर
आती है तब उस में फल कैसे है ? उ. पुष्पादि जीवों के प्रारम्भ से पूजा सावद्य-सपाप मालूम
होती है किन्तु अनुबन्ध से-उत्तरोत्तर भाव वृद्धि से पूजा निरवद्य-निष्पापं है । कारण यह है कि पूजा के समय में जिनेद्र के गुणों का बहुमान होता है और इसी से शुभ ध्यान रहता है और पापकर्म के योग्य मलीनारम्भ की निवृत्ति होती है। और वीतराग प्रभु के बहुमान से भाव
निर्मल होते हैं और चित्त की विशुद्धि होती है। प्र० जिनेन्द्र की पूजा से और क्या लाभ होता है ?
उ० जिनेन्द्र-प्रभु की पूजा-अर्चा-सेवा आदि देख कर भव्य
जीवों के शुभ भाव उल्लास को पाते हैं और ऐसे शुभ