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________________ ( १४० ) उ० यह कहनेवाले असत्य वक्ता हैं क्यों कि अगर ऐसा ही है तो मुनि को किसी नदी के उल्लंघन में जीयदया कहाँ जाती है । अगर यह कहा जाय कि यतना के साथ नदी को पार करनेवाला जीवदया का पालन करता है तो उन को समजना चाहिए कि जल स्वयं अकाय है और जहाँ जल है वहाँ वनस्पतिकाय भी है । वनस्पतिकाय है वहाँ तेउकाय है, जहां तेउकाय वहाँ वायुकाय है, जल पृथ्वीकाय पर है और जल में रहनेवाले मत्स्यादि त्रसकाय हैं । इस तरह की नदी पार करते हुए जीवदया कहाँ रहेगी ? कहने का सारांश यह है कि वे जो कि ' केवल दया ' कहनेवाले हैं वे डम्बर करनेवाले हैं क्यों कि मुनि को आशय की विशुद्धि के साथ नदी पार करते हुए हिंसा नहीं होती । यद्यपि नदी में चलते हुए हिंसा अवश्य होती है किन्तु विधिपूर्वक यतना के साथ निर्मल आशय को रखते हुए पार करने से मुनि को हिंसा होती नहीं । इसी तरह विधि योग से शुभ भाव को धारण कर के यतना के साथ पूजन करने से जिनेन्द्र पूजा मोक्ष की कारणभूत होती है । ज्ञानार्णव में कहा है कि एक मनुष्य विरति के परिग्राम मैं चलता हो किन्तु कदाचित् कोई जीव उस के पैर के वजन से दब कर मृत्युवश वो जावे तव भी चलनेवाले को पाप नहीं है । ऐसे ही जिनपूजा उपयोग के साथ यतनापूर्वक शुभ भाव से कि जाती है। ऐसी पूजा
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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