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(११९ ) से दूषित होते हैं। उसी तरह व्यवहार राशी में से निगोद
में आया हुआ जीव पुनः निगोद के जैसा होता है। प्र. निगोद के जीव समस्त लोक में व्याप्त होकर रहे हैं वे
घनीभूत होने पर क्यों देखने में नहीं आते ? उ. निगोद के जीव अति सूक्ष्मनामकर्म के उदय से एक
शरीर में आश्रय कर के अनन्तान्त रहे हुए हैं। किन्तु वे चर्मचनु से नहीं देखे जा सकते। जिस तरह गंधा (वज) कलेवर और हिंग आदि की अनेक प्रकार की गंध पर। पर मिलकर रहने से अन्य वस्तु को या आकाश को संकीर्णता नहीं होती । निगोद के जीव को परस्पर मिलने से संकीर्णता होती है। किन्तु अन्य वस्तु को या आकाश को संकर्णिता नहीं होती। जैसे गंधादि वस्तु का अस्तित्व नासिका से ज्ञात होता है, किन्तु नेत्र से कुछ भी ज्ञात नहीं होता। उसी तरह निगोद के जीवों का अस्तित्व श्री जिनवचन से श्रद्धा करने पर ज्ञात हो सकता है किन्तु नेत्रों से या इन्द्रियों से ज्ञात नहीं कर सकते, केवल शानी ही देख सकता है। हवा में उडनेवाली रज हम नहीं देख सकते किन्तु किसी छिद्र प्रविष्ट सूर्य किरण में उस को देख सकते हैं वैसे दिव्यदृष्टि ही निगोद के जीवों को
देख सकता है। प्र. निगोद के जीव आहार करते हैं किन्तु वे किस गुण से
गुरुत्व को प्राप्त नहीं होते ?
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