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( ११८) प्र० यह कैसे होता है वह स्पष्टता से समजाईए ? ७० निगोद के जीव जातिस्वभाव से और महा दुःखदायक
उत्तरकाल की तादृश प्रेरणा से सदैव दुःख को पाते हैं। जिस तरह लवण समुद्र का जल सदैव लवण ही होता है, अनन्तकाल व्यतीत होने पर वह कभी मिष्ट नहीं । होता, और वर्णातर को भी नहीं प्राप्त होता इस तरह अनन्तान्त काल व्यतित होता रहता है, तथापि जब लवणसमुद्र का जल मेघ का मुख प्राप्त होने पर ( आतप से बाष्प होकर मेघ वनने के बाद) गंगादि महानदी में आने से पेय हो जाता है, इसी तरह निगोदमें से निकल कर व्यवहारराशी में आने पर जीव सुखी होते हैं। जैसे गंगादि महानदी का जल फिर लवण समुद्र में जाने पर समुद्र-जल के रूप और रसयुक्ततार होता है। - और मी कुर्मान्त्रिक के हृदय में कुंमन्त्र के वर्ण होते हैं वे उच्चाटन कहलाते हैं। कुान्त्रिक के हृदय जैसा निगोदस्थान होता है। सन्मत्र के वर्षों के समान
व्यवहारराशी के जीव होते हैं। जिस तरह कुर्मन्त्र के ...वणे में से जो वर्ण सन्मन्त्र में आते हैं वे शुभ कहलाते
हैं। उसी तरह निगोद के जीवो में से जो व्यवहारराशी में आते हैं वे विशिष्ट होते हैं । और जिस तरह फिर · सुमन्त्र के वर्ण सुमन्त्र के काम में लाने से वे उच्चाटन दोष