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________________ (११२) सकते । नेत्र, कर्ण, जिह्वा तथा: नासिका से शर्करा, कर्पूरादि सुगन्धी वस्तुओं का ज्ञान होता है किन्तु कभी कभी जिह्वा से होनेवाले ज्ञान को ही प्रामाण्य आता है ! . . . और भी सुवर्णादि में नेत्र से, कर्ण से ज्ञान होता है मगर जब तक कषादि से निश्चय नहीं किया जाता वहाँ तक नेत्रकर्णादि के ज्ञानों को प्रामाण्य नहीं आता। ___ रत्नपरीक्षकवर्ग इन्द्रिय समान होने पर भी रत्नपरीक्षा नामक ग्रंथ के आधार से माणिक आदि रत्न- . राशि की किंमत भिन्नभिन्न कहते हैं। उस में स्व प्रतिभा ही मुख्य कारण है । इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियज्ञान संपूर्ण सत्य नहीं होता। और भी औषधि, मंत्र, गूटिका अथवा अदर्शीकरण (नेत्रांजन ) से गुप्त रहनेवाले का शरीर लोगों की दृष्टि में नहीं आता और इस से इन्द्रियां " वह नहीं है " ऐसा ज्ञान क्या नहीं करता ? इस लिए इन सब से परोक्ष की सिद्धि होती है और परोक्ष की सिद्धि में ही स्वर्ग-नरक की सिद्धि है। प्र० और भी जो वस्तु चेष्टा से भी नहीं नजर आती उस को कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? उ० सर्वज्ञ प्रभु केवलज्ञान से जितनी सत् वस्तु होती है. उन को जानते हैं और इसी लिए अन्य के ज्ञानार्थ जिन जिन बातों वे कह गये हैं उस में प्रामाण्य स्वीकार करना चाहिए।
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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