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(१११) पादन नहीं कर सकता; किन्तु प्रत्येक शब्द को सत्पद को कहना ही योग्य है । उन के वर्ण केवल कर्णेन्द्रिय से ही ग्रहण हो सकते हैं और स्व-स्व भाव से उत्पन्न होनेवाले उन उन प्रकार के फलों से अनुमान भी हो सकता है। प्रत्यक्ष करना यह कार्यमात्र केवलज्ञानी ही कर सकता है।
वे शब्द जो दो या उन से ज्यादा शब्दों के संयोग से होते हैं उन का अस्तित्व होता भी है और नहीं भी होता । जैसे " वंध्यापुत्र " यह शब्द दो पदों से बना है और उस का अस्तित्व संसार में नहीं है किन्तु उन्हीं पदों को भिन्न करने पर वंध्या का भी अस्तित्व मिलता है और पुत्र की भी हस्ति नजर
आती है इस लिए यह साबित होता है कि एक पदवाले अवश्य होते हैं जब ज्यादा पदवालों का अस्तित्व संशयास्पद होता है । जैसे मृग-जल, आकाश-पुष्प, खर-शृंग इत्यादि अनेक संयुक्त शब्द नहीं होते।
कितनेक शब्द संयोगज होते हैं जिस का विरह प्रायः नहीं होता-गोशंग, गोपति, भूधर इत्यादि शब्द भिन्नभिन्न और संयुक्त भी होते हैं। .
और भी इन्द्रियज्ञान वह सर्व सत्यज्ञान नहीं है। इस के लिए विशेष में यह लिखने का है कि-कर्ण, नेत्रादि से ग्रहण होने के योग्य ऐसी वस्तु में भी सच्चे कर्पूरादि नहीं किन्तु उस के सहश लवणशर्करादि में भी नेत्र या कर्ण भेद नहीं कह