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________________ ( ३०९ ) तो साक्षात् हुआ है तो फिर यह कैसे हुआ ? इस से सिद्ध होता है कि इन्द्रिय ज्ञान सब सत्य नहीं होता । और भी आनन्द शोकादि शब्दों को नास्तिक और आस्तिक समान रीत से यथार्थ मानते हैं । ये शब्द जिह्वादिवत् शब्दवाले नहीं, सूवर्णादि के तरह रूपवाले नहीं, पुष्पादि के समान गन्धवाले नहीं शर्करादि की तरह रसवाले नहीं और हवा के तरह स्पर्शवाले नहीं किन्तु ताल्वोष्ठ जिह्वादि ( तालु-ओष्ठ - जिह्वा ) स्थान से कहे जाते और श्रोत्रेन्द्रियद्वारा उस के वर्णों को ग्रहण कर सकते हैं, और उस से होनेवाली चेष्टाओं से विशेष बोध होता है, और स्वानुभव से प्राप्त फल से अनुमान हो सकता है, और वे शब्द स्व - विरोधियों का नाश करते हैं और विरोधियों के जन्म के साथ अपने नाम का शीघ्र नाश करते हैं । खुद के उच्चार के साथ उत्पन्न होनेवाले गुणविशिष्ठ उन शब्दों को प्रत्येक समान तसे काम में लाते हैं । अगर ऐसे सिद्ध शब्दों का साक्षात्कार ( अनुभव ) स्व-इन्द्रियों से नहीं होता तो अप्रत्यक्ष पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक आदि में किस की इन्द्रियाँ प्रवृत्त हो सकती हैं ।
SR No.010319
Book TitleJain Tattvasara Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandra Gani
PublisherJindattasuri Bramhacharyashram
Publication Year
Total Pages249
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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