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इन्द्रियों के ज्ञान की हानि होने से प्रायः मोह हो जाता है और इसी से तद् वस्तु में तद् वस्तु का - रामादि नहीं उसी वस्तु में रामादि का भ्रम होता है । अस्तु | तब यह तो सिद्ध हो चूका कि इन्द्रियों से होनेवाला ज्ञान हमेशां सत्य नहीं होता ।
निरोगी मनुष्य शंख को सफेद देख कर लेता है मगर 'जब कभी उस की आंख में कोई रोग हो जाता है तब वह उस को विविध रंग से भरा देखता है । और मनुष्य जब स्वस्थ होता है तब अपने स्नेहिजनों को अच्छी तरह पहिचा-नता है मगर वह जब नशे में - मदिरा आदि में - मस्त होता है तब क्या पहिचान सकता है ? अगर इन्द्रियों से ज्ञात हुआ पदार्थ सत् होना चाहिए तो उसी आदमी में उन ही इन्द्रियों के रहने पर भी इतना विपर्यास पूर्वज्ञान और उत्तरज्ञान में क्यों होता है ? और उस का कौनसा ज्ञान सच्चा मानना ? रोगादि के पूर्व का या पीछे का अगर पूर्व का सच्चा मानो तो इन्द्रियाँ पूर्व की होने पर भी ज्ञान में विभिन्नता क्यों पैदा हुई ? - इस से निश्चित होता है कि प्रथम मन अविकारदशा में था और विकारदशा में अब है ? और इसी से ही यह भेद हुआ । अब भेद किस में हुआ यह सोचना चाहिए । यह भेद अगर मानसिक हो तो मन दृश्य नहीं है और वर्ण से भी उस का निवेदन नहीं कर सकते । अगर केवल इन्डियों का ही सच्चा माना जाय तो मन की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती और विकार
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