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नित्यता देखते रहते हैं । सिद्ध आनंद से भरे होते हैसाधु अन्त:करण शुद्ध रक्खते हैं । संतोष और समभाव से रहते हैं। इस तरह सिद्धों के जो गुण होते हैं और जिन का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है उन गुणों को मुमुत्तु समज के थथाशक्ति पालने को कटिबद्ध होता है और क्रम से से वह सिद्ध होता हैं । और भी गृहस्थ जो दुष्कर्क की शान्ति के लिए अपनी शक्ति के अनुसार देश से भी ( अंशतः, सर्वथा नहीं ) अनुसरता है यह भी अनुक्रम से सुखी होता है ।
इस से निश्चित होता है किं मुमुक्षु अल्प गुण में से सिद्ध के परिणाम से महागुण को प्राप्त होता है ।
प्र० गृहस्थ धर्म के लिए क्या आवश्यक है ?.
सदा
उ० गृहस्थों के लिए-श्रावकों के वास्ते निरंतर साकार देवपूजा, साधुओं की सेवा और दानादि धर्म आवश्यक हैं । गृहस्थ प्रायः हमेशां सावद्य ( पापमय ) व्यापार में रक्त, काल ऐहिक अर्थप्राप्ति में प्रसक्त ओर कुटुम्ब - पोषण के वास्ते हमेशां उच-नीच वार्ता में श्रादरयुक्त होते हैं इसी से स्वचित्त की उन को अवश्य तत्त्वत्रयी का ( देव - गुरु-धर्म ) सेवन करना आवश्यक है |
( आजीविका ) शुद्धि के लिए
प्र० कौन आदमी निन्दा को प्राप्त नहीं होता १
उ० जो निश्चय पर दृष्टि रख के कार्य को - सर्व व्यवहार करता