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(१०१) १० तत्वविद्लोग ज्ञान को ब्रह्म अथवा ज्योति कहते हैं।
एक सिद्ध का ब्रह्म ( ज्ञान अथवा ज्योति ) अनन्त दिशाओं में अनन्त क्षेत्रों को आश्रय कर के रहता है और उसी क्षेत्रो में दूसरे का-तीसरे का यावत् अनन्त सिद्धों का ब्रह्म रहा हुआ है । और इसी से ही कहा जाता है कि ब्रह्म में ब्रह्म लीन होता है, ज्योति में ज्योति लीन
होती है। प्र. अगर अमुक निश्चित क्षेत्रो में ही ब्रह्म के साथ अन्य ब्रह्मों
की भी लीनता हो जावेगी तो क्षेत्र छोटा होगा और
परस्पर मीलित ब्रह्मों को भी क्षेत्रसंकीर्णता होगी। ६० ऐसा नहीं हो सकता । एक विद्वान अपने हृदय में अनेक
शास्त्रों को धारण करता है मगर कभी हृदय की संकीर्णता नहीं होती। और अक्षरों को परपीडा भी नहीं पहुँचती । इस तरह ब्रह्म परंपरा आश्रित ब्रह्म से (चित् ) सर्वत्र व्याप्त क्षेत्र कभी संकीर्ण नहीं होता। और ब्रह्म को भी संकीर्णता अथवा परस्पर का सांकर्य नहीं होता । और इसी तरह सिद्धों से परिपूरित सिद्धक्षेत्र कभी संकीर्ण नहीं होता। और सिद्ध परंपराश्रित सिद्ध सांकर्य-बाधा से रहित अनन्त और अगाध ज्ञानसुख में मस्त रहते हैं।