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( ७२ ) सेवन करता है । और उस के बाद खट्टा मीठ्ठा ' करंभ' अगर खाया जाय तो उस के शरीर में वायु उत्पन्न होता है। और वह वायु वर्षाऋतु के संयोग से अत्यन्त कुपित हो कर के शरद् के संयोग होने पर ही पित्त के प्रभाव से प्रायः शान्त होता है। स्वेच्छित भोजन से वायु की उत्पत्ति, वृद्धि और नाश ये तीन दशायें प्राप्त होने में जैसे काल हेतु है वैसे आत्माको भी कर्मों के ग्रहण में, स्थिति में और शान्त होने में काल ही कारण है । इस तरह आत्मा से उपार्जित कर्मों का काल से ही भोग और शान्ति होती है। यह होने पर भी जैसे उग्र उपायों से काल . प्राप्त होने के पहिले भी वातादि शान्त होते हैं वैसे कर्म भी शान्व होते हैं।
कोई स्त्री अन्य की प्रेरणा के बिना किसी पुरुप से संभोग करें और उस का विपाक काल परिपूर्ण होने से प्रसव के समय उस को सुख और दुःख होता है उसी तरह जीव के स्वकत शुभाशुभ कर्म किसी की प्रेरणा के सिवाय स्वकाल को प्राप्त हो कर के जब प्रगट होते हैं तब जीव को सुख और दुःख देते हैं।
सिद्ध या प्रसिद्ध पारद कोई रोगी खा जाय और उस का जव स्वकाल प्राप्त होता है तब वह सुख दुःख को पाता है, अथवा दुर्वात शीतांगक या सन्निपातादि रोग जिस शरीर में रहते है उस शरीर को स्वकाल प्राप्त होने पर दुःख देते हैं।
और भी चेचक, शीतला आदि बालरोग की गरमी की असर छे मास तक शरीर में रहती है। और क्षय, आक्षिविन्दु, उधत,