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७० जीव पंच समवाय ( काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म
और पुरुषार्थ ) के सामर्थ्य से कर्मों का ग्रहण, धारण, भोग और शमन करता है। और उन्हों की प्रेरणा से जीव सुखदुःख का भागी होता है। कर्मसमुदाय स्वयं ही स्वकाल मर्यादाओं को प्राप्त हो कर जीव को सुखदुःख देता है और यह उस का स्वभाव है। जीव शुभाशुभ कर्मों को ग्रहण करता है और ग्राह्य स्वभाव से ग्रहण करते हुएं जानता भी है, अथवा स्वाभिप्राय से मैं ठीक करता हूँ यह भी जानता है। ये बातें मान्य करने लायक भी हैं, परन्तु कर्म जड होने से भोग काल को कैसे जानें जिस से वे प्रगट हो सकें ? क्या आत्मा दुःख भोगने की इच्छावाला होता है जो दुष्कर्म को आगे करता है। इसलिए दीर्घ काल व्यतीत होने पर कर्म जो आत्मा को सुखदुःख पहुंचाते हैं वे कोई
प्रेरक की मदद से ही। उ० यह ठीक नहीं है । कर्म जड हैं । वे निज भोगकाल को .
नहीं जानते । और आत्मा दुःखकामी भी नहीं है। तथापि जीव को दुःख होता है और कर्म जड होने पर भी द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव सामग्री की तथाप्रकार की
अनिवार्य शक्ति से प्रेरित हो कर के प्रकाश में आ कर के . स्वकर्ता आत्मा को बलात्कार से दुःख देते हैं ।
दृष्टान्त यह है कि कोई पुरुष उष्णकाल में शीतवस्तु का