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आत्मा ही शुभाशुभ कमों को करता है। अकेले अंग कुछ नहीं करते । और भी ध्यानी महात्मा बाह्यगत इन्द्रियों की मदद के बिना इच्छित कार्य करता है और जल, पुष्प, फल तथा दीपादि के विना भी केवल सद्भाव से पूजा सफल करते है वैसे बिना जिला जप करते हैं । बिना कर्ण और सुन भी लेते है। इसी तरह यह जीव भी इन्द्रियाँ और हस्तादि के बिना काल, समवाय आदि से प्रेरित होकर कर्मों को ग्रहण करता हैं। प्र-जीव के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त कर्म लगे हुए हैं तब
वे पिन्डीभूत होकर क्यों नहीं दिखते ? उ-सूक्ष्मतम कर्म चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जाता, मात्र हानी
जन ही उन को अपनी दिव्यज्ञान दृष्टि से देख सकते है। उदाहरण:-किसी पात्र या वस्त्रादि में लगे हुए सुगंध‘युक्त या दुर्गंधयुक्त पुगलों को नासिकाद्वारा जान सक्ते है परन्तु पिण्डीभूत होनेपर भी नयनादिक से देख नहीं सक्ते, मात्र केवलज्ञानी ही उन को यथार्थ रूप से देख सक्ते है। इसी तरह सिद्ध किया हुआ पारद में सुवर्णादि दृष्टि से देखा नहीं जाता परन्तु जब कोई सिद्ध योगीपुरुप उन सुवर्णादि को पारद से बहार निकालता है तब ही उन की सत्ता निश्चित होती है। इसी तरह जीव को लगे हुए कर्म मात्र केवलज्ञानी ही जान सक्ने हैअन्य कोई नहीं।
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