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उ-जीव गर्भ में शुक्र और रज (रूधीर) के मध्य में स्थित
होकर यथोचित आहार को ग्रहण कर के इन्द्रियों की मदद के बिना- जल्दि से सब धातुओं को पैदा करता है। और रोममार्ग से आहार लेकर खल को त्याग कर के रसों का आश्रय लेता है ! और उस के मल को जल्दि जल्दि बल से त्याग करता है। और भी सत्व-रज.और तम इन तीन गुणों को धारण करता हुआ सज्ञान-विज्ञानक्रोध-मान-माया-लोभ-हिताहित आचार-विचारविद्या-रोग-समाधि आदि को धारण करता है। इस तरह आत्मा विना कर्म की मदद के शरीर के भीतर की क्रियाओं को करता रहता हैं। और समय संपूर्ण होनेपर जैसे कोई मकान में से किरायेदार चला जाता है वैसें यह आत्मा भी शरीर में से निकल जाता हैं।
भावार्थ-इस तरह आत्मा शरीर में स्थित होकर, देह में व्याप्त होकर, इन्द्रियाँ की मदद को छोड कर क्रियाएँ करता है । और सूक्ष्म तथा स्थूल रुपी द्रव्यों को ग्रहण करता हैं। तब सूक्ष्मतम कर्मों को भी क्यों ग्रहण न करेगा ? । और यह आत्मा रुप तथा हस्तादि से रहित होने पर भी ऐसे रुपी शरीर को आहार-पानादि इन्द्रियों के विषय में तथा शुभाशुभ आरंभवाले कर्मों में किस तरह प्रवृत्ति कराता है यह बात विचार के योग्य है । अगर जीव के प्रयत्न के विना इन्द्रियादि अङ्ग कार्य करता है तो शब में (मृतक)-कि जब आत्मा निकल जाती है तब-क्रिया होनी चाहिए। इस से सिद्ध होता है कि