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( १३ ) यहां कोई अविवेकी पुरुष इस प्रकार कहता है कि जो जो शाश्वत (नित्य) वस्तु है, वह जीव जो जो आशास्वत (अनित्य) है परिवर्तनशील है वह काल कहलाता है। जिस प्रकार जीव का पर्याय नरक मादि, तीर्थंकर आदि
और पुद्गल का पर्याय लकड़ी आदि नाम ये सब परिवर्तन प्राप्त करते हैं इसलिये वे (शाश्वत) नित्य नहीं , अस्तु जो नित्य नहीं वह काल है। इस कारण से तीर्थकरत्व जीव नहीं नरक आदि भी जीव नहीं और परमाणु भी पुद्गल नहीं । जो इस प्रकार से कहते हैं उन्हें एकांत दृष्टि स्थापित करने वाले जानना चाहिये । इस प्रकार का विचार प्रदर्शित करने पर सूत्र के अनेक वचनों का विरोध होता है और अनेक पाठों की उत्थापना होती है । सूत्र में स्थान स्थान पर नरकादि को जीव कहा है । बाल, तरूण, तीर्थंकर आदि ये सब जीव की अवस्था है। "जीव की अवस्था को जीव कहा जाता है, वह किस दृष्टांत से ? जिस प्रकार मुद्रिका आदि सोना कहलाता है उसी प्रकार नरकादिक भी जीव कहलाते हैं।" यहां कोई प्रश्न करता है कि यदि तुम जीव की अवस्था को जीव कहते हो तो फिर काल किसे कहते हो ? उसका उत्तर है-जीव की अवस्था काल नहीं कहलाता है परन्तु जो अवस्था को करने वाला चन्द्र सूर्य का अपने मण्डल में परिभ्रमण है उसे काल कहते हैं ।' प्रश्न यदि ऐसा है तो यह कारण तो अढ़ाई द्वीप में है । अढाई द्वीप के बाहर