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४६ - भावप्रत्यासत्ति लक्षण सम्बन्ध-यथा-व्याप्ति व्यवहारकालवर्ती धूमादि लिंग और अग्नि प्रादि लिंगी में भावप्रत्यासत्ति लक्षण सम्बन्ध है । यदि यह नहीं माना जाता है तो अग्नि आदि लिंगी का धूमादि लिंग के द्वारा अनुमान हो सकने के कारण अनुमान और अनुमेय के असत्व का प्रसंग आता है।
इस प्रकार द्रव्यादिप्रत्यासत्ति लक्षण चारों सम्बन्धों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे निमित्त कारण कहा गया है वह केवल कालप्रत्यासत्ति वश उस काल में होने वाले कार्य का सूचक मात्र है। न तो वह उस कार्य का भूतार्थ रूप से सहायक ही है और न ही निमित्त कर्ता ही। ये दोनों मात्र असद्भूत व्यवहार के विषय अवश्य हैं ।
प्रेरक निमित्त भूतार्थरूप से अन्य के कार्य के प्रेरक नहीं (२) समीक्षक जिसे प्रेरक कारण कहता है, वह भी अन्य के कार्यरूप परिणाम क्रिया रूप व्यापार में सहभागी नहीं होता । मात्र वह कार्यद्रव्य से भिन्न रहकर ही अपनी कार्यरूप परिणाम क्रिया रूप व्यापार में प्रवृत्त रहता है। इसी से समयसार गाथा ८६ की प्रात्मख्याति टीका में यह वचन उपलब्ध होता है
___ यथा किल कुलालः कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वव्यापारानुरूपं मस्तिकायाः अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति ।
जैसे कुम्हार घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल अपने (इच्छारूप और हस्तादि क्रियारूप) व्यापार परिणाम को, जो कि अपने से अभिन्न परिणति क्रिया से किया जाता है, करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घड़ा बनाने के अहंकार से भरा हुआ होने से भी वह कुम्हार अपने व्यापार के अनुरूप मिट्टी के घट परिणाम को जो कि मिट्टी से अभिन्न है और मिट्टी से अभिन्न परिणतिमात्र क्रिया से किया जाता है-करता हुवा प्रतिभासित नही होता ।
यह आत्मख्याति का वचन है । इसके अनुसार जिसे समीक्षक प्रेरक कारण कहता है, वह भी अन्य के कार्य का व्यापार करने में स्वयं असमर्थ है और ऐसी हालत में अन्य के कार्य को वह आगेपीछे कर सकता है, यह केवल समीक्षक की अपनी बुद्धि के व्यायाम के सिवाय और कुछ भी नहीं है । जो कार्य का नियत प्रागभाव है वही उपदान है।
(३) ऐसा नियम है कि जो जिस कार्य का नियत प्रागभाव या निश्चय उपादान होता है, उसके अभाव में ही कार्य उत्पत्ति होती है। जैसा कि अष्टसहस्री के इस वचन से सिद्ध है
"यदभावे हि नियमतः कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभावः" जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होती है, वह प्रागभाव कहलाता है।
इससे स्पप्ट है कि कार्य अपने नियत काल में ही होता है, क्योंकि प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति प्रागभाव में ही होती है और प्रत्येक कार्य का प्रागभाव प्रति समय है अन्यथा कार्य के साथ निमित्त कारण की कालप्रत्यासत्ति नहीं बन सकती। आगे कहे जाने वाले इन वचनों से भी इसकी पुष्टि होती है।