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जीवके परिणामका निमित्त कर पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्त करके जीव भी परिणमित होता है ।
इसप्रकार कर्म और जीव के परिणामों में तथा जीवके परिणाम और कर्ममें इन दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव है-कर्तृकर्मभाव नहीं। यह बात आगे की गाथासे भनीप्रकार स्पष्ट हो जाती है । वह गाथा इसप्रकार है :
"ण वि कुव्वदि कम्मगुरणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ॥१॥
अर्थ :-जीव कर्मभावको उत्पन्न नहीं करता, उसीप्रकार में भी जीवभाव को उत्पन्न नहीं करता, फिर भी परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम होता है-ऐसा समझना चाहिए।
यहाँ कर्तृ-कर्मभाव और निमित्त-नैमित्तिकभाव में जो अन्तर है, उसे आचार्यदेवने स्वयं स्पष्ट कर दिया है। यही कारण है कि जहाँ कर्तृ-कर्मसम्बन्ध सद्भूत व्यवहारनयका विषय आगममें स्वीकार किया गया है, वहीं निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको आगममें असद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार किया है । इसका अर्थ है कि जिसे हम निमित्त कहते हैं, वह स्वयं कार्यरूप परिणमित न होने से कार्यद्रव्य के स्वचतुष्टयसे बहिर्भूत है और इसीलिये उसे सहायक अर्थात् निमित्त कहना भी अभूतार्थ है तथा जिसे नैमित्तिक कहते हैं वह भी निमित्तरूप व्यवहारको प्राप्त द्रव्यसे अत्यन्त भिन्न होने के कारण नैमित्तिक भी उपचार से ही कहा गया है, भूतार्थ से नहीं।
फिर पागम में निमित्त-नैमित्तिक भाव क्यों स्वीकार किया गया है ? इसका मुख्य कारण , 'काल प्रत्याशित को छोड़कर अन्य कोई दूसरा कारण नहीं है । समयसार की ८४वीं गाथा में इसी काल प्रत्यासत्ति के स्थान में उक्त दोनों के मध्य वाह्य व्याप्ति स्वीकार की गयी है । आगम में जो यह संकेत दृष्टिगोचर होता है कि बाह्यनिमित्त कार्य के अनुकूल होता है, सो यह कथन भी असद्भूत व्यवहारनयका ही विषय है । परमार्थ से देखा जावे तो न बाह्यनिमित्त कार्य के अनुकूल होता है और न ही कार्य वाह्य निमित्त के अनुरूप होता है । एक को अनुकूल कहना और दूसरे को अनुरूप कहना, यह भी असद्भूत व्यवहार ही है।
इस प्रकार कर्त-कर्म भाव और निमित्त-नैमित्तिक भाव में क्या अन्तर है इसका स्पष्टीकरण करने के बाद आगे उन चार मुद्दों पर अलग-अलग विचार किया जाता है, जिनका क, ख, ग, घ, में पहले निर्देश कर आये हैं।
(क) — यह प्रसन्नता की बात है कि समीक्षक भी जिसमें निमित्त व्यवहार किया गया है, वह अपने से भिन्न अन्य द्रव्य के कार्यरूप परिणत नहीं होता है, 'इसे स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ मिट्टी के अपने परिणामस्वरूप के कारण स्वयं घटरूप परिणत होने पर कुम्भकार (बाह्य निमित्त) स्वयं घट नहीं बन जाता इसे समीक्षक इसी रूप में मानता है, यह, प्रसन्नता की बात है।
. (ख) समीक्षक वाह्य निमित्त को अन्य द्रव्य के कार्य में सहायक मानकर इस अपेक्षा से उसे ' (बाह्य निमित्त) को भूतार्थ मानता है । अतः यह विचारणीय हो जाता है कि वाह्य निमित्त अन्य