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और दूसरी यह कि उस उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म को पूर्वपक्षकी मान्यता के अनुसार उपयुक्त प्रकारसे कथंचित् अकिंचित्कर व कथंचित् कार्यकारी मानकर उसरूप में कथंचित् अभूतार्थ और कथचित् भूतार्थ माना जाय, व इस तरह भूतार्थ और अभूतार्थरूप से घ्यवहारनय का विषय माना जाय या उत्तरपक्ष की मान्यता के अनुसार उसे वहां पर उपर्युक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर मानकर उस रूपमें सर्वथा अभूतार्थ माना जाय व इस तरह उसे सर्वथा अभूतार्यरूप में व्यवहारनय का विषय माना जाय ।"
(अ) पृष्ठ ४ में वह पुनः लिखता है कि "परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट, द्रव्यकर्म को उसे कार्यरूप परिणत न होने और उपादान कारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा अकिंचित्कर मानता है, वहां पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादान कारणभूत संसारी आत्मा की उस कार्यरूप परिगतिमें सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी मानता है।"
' (ए) पुनः पृष्ठ ४ में वह उपचार को माध्यम बनाकर लिखता है कि "यद्यपि इस विपय में भी दोनों पक्ष के मध्य यह विवाद है कि जहां उत्तरपक्ष उपचार को सर्वथा अभूतार्थ मानता है, वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है । इस पर भी यथावश्यक आगे विचार किया जायेगा।"
समीक्षाके नाम पर समीक्षक के ये ७ वचन हैं । इन वचनोंमें समुच्चयरूपसे जिन बातों को स्वीकार किया है, वे इसप्रकार हैं :--..
(क) समीक्षक यह तो स्वीकार करता है कि निमित्तकारण अन्य द्रध्यके कार्यरूप से परिणत नहीं होता है इस अपेक्षा से वह अभूतार्थ है ।
(ख) किन्तु वह (बाह्य निमित्त) अन्य के कार्य में सहायक अवश्य होता है, इस अपेक्षा से वह भूतार्थ है।
(ग) इसी आधार पर वह उपचार को कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ कहता है । (घ) उसकी दृष्टि में व्यवहारनय का सही तात्पर्य है ।
अब इस विषय में प्रागम क्या है, इस पर विचार किया जाता है । आगममें कर्ताकर्मभाव और निमित्त-नैमित्तिकभाव ये दो सम्बन्ध स्वीकार किये हैं । कर्ताकर्म सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुये प्राप्तमीमांसा कारिका ७५ की अष्टसहस्री टीका में (पृ. २३३) कारकांगके रूपमें कर्ताकर्मभावको स्पष्ट करते हुये लिखा है कि "कर्ता का स्वरूप कर्मकी अपेक्षा नहीं करता है और कर्मका स्वरूप कर्ताकी अपेक्षा नहीं करता है। यदि इन दोनों के स्वरूपको परस्पर सापेक्ष मान लिया जावे तो दोनोंका अभाव हो जावेगा। फिर भी कपिनेका व्यवहार और कर्मपनेका व्यवहार परस्पर निरपेक्ष 'नहीं होते, क्योंकि कर्तापना कर्मके निश्चयपूर्वक जाना जाता है और कर्मपना भी कर्ताक ज्ञानपूर्वक जाना जाता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक वस्तु में कर्ताकर्म व्यवहार असद्भूत व्यवहारनय का विषय न