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इसलिए पूर्वपक्ष का ऐसा लिखना कि "उत्तरपक्ष को तीसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की उत्पत्ति में प्रसद्भूत व्यवहार काररण होता है ।" सो उसका ऐसा लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म की उत्पत्ति स्वभाव के प्रांलम्वन से ही होती है, व्यवहारधर्म के श्रालम्बन से नहीं, क्योंकि स्वभाव पर्याय जीव का परनिरपेक्ष धर्म है ।
(४) उत्तरपक्ष उपादान के सम्बन्ध में जो कुछ भी मानता है, वह प्रमाण से श्रागमानुसार ही मानता है । श्रगम यह है कि श्रव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य को उपादेय (कार्य) कहते हैं । जैसा कि प्रष्टसहस्री पृ. १०० में लिखा है, ऋजुसूत्रनय को विवक्षा में --
ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धिं प्रागभावस्तावत्कार्यस्योपादानपरिणाम एंव पूर्वान्तरात्मा ।
ऋजुसूत्रनय की मुख्यता से अनन्तर पूर्व पर्यायरूप उपादान परिणाम ही कार्य का प्रागभाव है ।
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यही बात स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा में कही गई है । उपादान परिणाम ही कार्य का प्रागभाव है ।
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आगम के अनुसार यह वस्तुस्थिति है । अब रह गई विचारणीय यह बात कि उत्तरपक्ष इसे निश्चय उपादान क्यों कहता है ? सो उसका समाधान यह है कि उपादान और उपादेय में एकद्रव्यप्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसीलिए ही वह इसे प्रभेदविवक्षा में निश्चय उपादान कहता है । भेदविवक्षा से देखा जाय तो वह सद्भूत व्यवहारनय का विषय ठहरता है, किन्तु वह पक्ष वस्तुतः उपादान के इस लक्षण को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, क्योंकि अपनी टिप्पणी में लिखता है कि
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"परन्तु यहां उपादानं कारण तो मिट्टी को ही माना जा सकता है, पूर्व पर्यायों को नहीं । इसमें हेतु यह है कि उससमय कार्यरूप परिणति को उन पर्यायों की परिणति न मानी जाकर मिट्टी को ही मान्य करना युक्त है, क्योंकि उन पर्यायों का तो विनाश होकर ही मिट्टी में उस उस कार्य की उत्पत्ति होती है । इतना अवश्य है कि मिट्टी में कोशपर्याय स्थासपर्यायपूर्वक होती है, अतः कोश पर्याय में वह स्थासपर्याय सद्भूत व्यवहारकारण होती है । तथा मिट्टी में कुल पर्याय कोशपर्याय पूर्वक होती है । अतः कुशल पर्याय में वह कोशपर्याय सद्भूतव्यवहार कारण होती है । एवं मिट्टी में घटपर्याय कुशूलपर्यायपूर्वक होती है, अतः घटपर्याय में वह कुशल पर्याय सद्भुतव्यवहार कारण होती है ।"
स. पृ. ३०१ पर उस पक्ष का यह वक्तव्य है । पूर्वपक्ष ने (१) इसी कथन के आधार पर प्रेरक कारण को स्वीकार करके ही कार्य के आगे-पीछे होने का विधान किया है। उसका इतना कहना नहीं है, किन्तु वह यह भी लिखने से नहीं चूकता कि यदि श्रव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य उपादान की भूमिका में भी उपस्थित हो जाय और सामग्री न मिले या बाधक सामग्री उपस्थित रहे निमित्त मिलता है, उसके अनुसार कार्य होता है परं निष्कर्ष के रूप में यहीं ज्ञात होता है कि खड़ी की है ।
उसके कार्यरूप उस उपादान के
परिणमन में अनुकूल सहायक अनुसार कार्य न होकर जैसा
तो
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पूर्वपक्ष के द्वारा लिखी गई पूरी समीक्षा को पढ़ने उसने इसी आधार पर पूरी समीक्षा की मंजिल