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से ही हुआ है, जबकि द्रव्यानुयोग में गुणस्थान और मागंणस्थानों के भेदों को गौरण किया गया है, इसलिये धवलादि ग्रन्थों का अन्तर्भाव करणानुयोग में ही होता है, द्रव्यानुयोग में नहीं । द्रव्यानुयोग का विषय छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय और जीवादि नौ पदार्थ श्रादि के स्वरूप का निरूपण करना है तथा करणानुयोग गुणस्थान मार्गरणास्थान आदि के श्राश्रय से प्रतिपादन करता है ।
: . कहना चाहिये कि उसकी समझ अनूठी है । वह ही केवल वस्तुविज्ञान और अध्यात्मविज्ञान को समझा है । लगता है इसी आधार पर वह वस्तुविज्ञान के अनुसार समर्थ उपादान के कथन को स्वीकार न करके अपनी मति के अनुसार उपादान का लक्षरण स्वीकार करके प्रेरक निमित्तों के आधार पर जीवादि पदार्थों को पराधीन बनाने में अपनी इति कर्तव्यता समझता है ! यह है उसकी वस्तुविज्ञान सम्बन्धी रहस्यपूर्ण जानकारी का उद्घाटन और उसकी यह समझ कि पराश्रित धर्म हो अध्यात्म में जीव का सद्भूत व्यवहार होता है, यह है उसकी अध्यात्मविज्ञान सम्बन्धी रहस्यपूर्ण जानकारी का उद्घाटन ।
(१) आगे उस पक्ष ने साध्य-साधक भाव के सम्बन्ध में अपनी मति के अनुसार उत्तरपक्ष की जिन मान्यताओं का उल्लेख किया है, वह यथार्थ नहीं है; क्योंकि व्यवहारधर्म के विषय में आगम के अनुसार उत्तरपक्ष यह मानता है कि अशुभ भाव से निवृत्ति और शुभभाव में प्रवृत्ति रूप जीव को मन चंचन-काय प्रवृतिंपूर्वकं जो भी परिरणाम होता है, उसे व्यवहारवमं कहते हैं । जैसा कि द्रव्यसंग्रह में कहा भी है-
:
सुहादो विरिंगवित्ती सुहे पवित्ती य जारण चारितं ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहाररणया दु जिरणभरिणयं ॥ ४५ ॥ .
संक्षेप में अर्थ पूर्व में दिया ही है ।
'अहिंसादि व्रतरूप परिणाम मन, वचन, काय की है । इसके द्वारा निश्चयधर्म की प्रसिद्धि होती है, कहा जाता है । 'यह श्रागमानुसार उत्तरपक्ष की
(२) जिस समय निश्चयधर्म की प्राप्ति होती है, उस समय से लेकर जितनी बाह्य प्रवृत्तिपूर्वक होता है, उसका नाम ही व्यवहारधर्म इसलिए उपचार से इसे निश्चयधर्म का साधक भी मान्यता है, अत: उस पक्ष ने जो यह लिखा है कि
कल्पना मात्र है । उत्तरपक्ष
"उत्तरपक्ष की दूसरी मान्यता यह है कि व्यवहारधर्म जीव के लिए निश्चयधर्म की प्राप्ति होने में fioचित्र न होकर किचित्कर ही बना रहता है।" यह उसका कहना जिस रूप में व्यवहारधर्म को साधक मानता है, उसके स्थान में अपने मन गढ़न्त कथन द्वारा उसका अपलाप नहीं करना चाहिये, क्योंकि उत्तरपक्ष मानता है कि व्यवहारधर्म वह है जो पराश्रित होकर भी शुभ परिणतिरूप होता है । इस अपेक्षा वह अकिंचित्कर है, सर्वथा अकिंचित्कर नहीं होता है, पर वह स्वभावधर्म को स्वयं उत्पन्न करने में असमर्थ है ।
(३) उत्तरपक्ष निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध को प्रसद्भूत व्यवहारनय से हो स्वीकार करता है । उसकी पुष्टि श्रागम से भी होती है, इसलिए यदि वह पक्ष निश्वयधर्म की प्रसिद्धि में व्यवहारधर्म को प्रसद्भूत व्यवहारनय से प्रयोजनीय मानता है तो यह मानना श्रागमानुसार ही है ।