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करे, ग्रहण करे या जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते हैं । इस तरह उपादान कार्य का आश्रय ठहरता है (स. पृ. २१)" वह पक्ष यह सहज लिख सका और ऐसा लिखने में उसे कोई वाधा नहीं दिखाई दी।
___ यही कारण है कि समीक्षक ने द्रव्याथिकनय से स्वीकृत उपादान के लक्षण को अपनी प्ररूपणा का आधार बनाकर अपने मंतव्यानुसार ईश्वरवाद को जैनागम में स्थान दिलाने का असफल प्रयास किया है । इसमें संदेह नहीं, यह कोई समीक्षक पर हमारा आक्षेप नहीं है, उस पक्ष द्वारा की गई इस कथनी से जो आशय फलित होता है, उसका यह दिग्दर्शनमात्र है। हम तत्त्वज्ञानी हों, पर ऐसे दुष्परिणाम से दूर रहकर जिनागमं को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये हमने जो प्रयत्न चालू रखा है, उसके लिये कोई भी विवेकी हमें प्रोत्साहन ही देगा।
अरे भाई ! कार्य-कारण भाव की कथनी में उपादान का भी स्थान है और वाह्य निमित्त का भी स्थान है। पर वहाँ उपादान का लक्षण इस रूप में उपलब्ध होता है कि जिसमें न तो द्रव्य । गौण होता है और न पर्याय गौरण होती है । कार्य होता है तो दोनों रूप होता है । यह कोई मोक्षमार्ग या संसार मार्ग की कथनी नहीं है कि जिससे दृष्टि की अपेक्षा एक को गौण किया जाए और दूसरे को मुख्य किया जाय। यह तो वस्तुव्यवस्था का प्रसंग है। यहाँ तो प्रत्येक स्थिति में वस्तु पूर्ण रहती है। चाहे संसाररूप अवस्था हो या मोक्षरूप अवस्था हो । जहां समीक्षक ने उदासीन निमित्त के आधार पर अपनी बात का समर्थन किया है। वहां उसने प्रमाण दृष्टि से म.ने गये प्रागम सम्मत समर्थ उपादान को स्वीकार कर ही निमित्त-नैमित्तिक भाव की सम्यक व्यवस्था को स्वीकार भी कर लिया है, मेरा समीक्षक यही कहता है कि उपादान के लक्षण को दो प्रकार का मान कर लोगों को भ्रम में क्यों डालते हो। समर्थ उपादान तो एक ही प्रकार का है। तथा समीक्षक ऐसा उदाहरण दे सकता है कि द्रव्याथिक नय का उपादान हो और प्रेरक निमित्त के बल पर कार्य हो जावे । यदि नहीं दे सकता है तो व्यर्थ के भ्रमजाल में दूसरे जीवों को क्यों डालता है ।
इसी आधार पर समीक्षक ने स पृ. २१ में निमित्त की पुष्टि के लिये ही "उपचरित (काल्पनिक) नहीं है" जो यह लिखा है सो वह भी अपने अभिप्राय से लिखा है, क्योंकि वह मानता है कि उपादान और निमित्त की संघटना से कार्य होता है और निमित्त कार्य की उत्पत्ति में भूतार्थ रूप से सहायता करता है, किन्तु इसके साथ जहां उसने कार्य को केवल स्वप्रत्यय मान लिया है और उस आधार पर आगम विरुद्ध यह लिखने से भी नहीं चूका है कि जैन संस्कृति ऐसे परिणमन भी स्वीकार करती है जो निमित्तों की अपेक्षा के विना केवल उपादान के अपने बल पर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें यहां स्वप्रत्यय नाम दिया गया है, स. पृ. २५" और विचित्र बात यह है कि ऐसे सर्वदा आगम विरूद्ध परिणमनों को स्वीकार करके भी समयसार गाथा ११६ मादि में आये हुए "सयं" पद का अर्थ अपने ग्राप करने के लिये वह कदापि तैयार नहीं है। आश्चर्य महायाश्चर्य । यह है थोड़े में पूर्वपक्ष के मंतव्यों का निचोड़, फिर भी वह अपनी को विश्राम देना नहीं चाहता और परस्पर विरुद्ध अपने विचारों को मूर्त रूप देता चला जा रहा है ।